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अनेकान्त 68/1, जनवरी-मार्च, 2015
85 आहार-विहार से स्वयं रक्षा करते हुए तथा सद्बत का अनुवर्तन करते हुए संयम पूर्वक आचरण के द्वारा अपने स्वास्थ्य की रक्षा करे। विपरीत आचरण, मिथ्या आचरण असंयमपूर्ण (कदाचरण) शरीर में विकार उत्पन्न कर उसे रोगी बना देता है। अतः इनका सदैव परिहार करना चाहिए। कौन मनुष्य निरोग रह सकता है? इस विषय में सुन्दर ढंग से शास्त्रों में विवरण मिलता है जो निम्न प्रकार है -
नरो हिताहरविहारसेवी समीक्ष्यकारी विषयेष्वसक्तः। दाता समः सत्यपरो क्षमावानाप्तोपसेवी च भवत्यरोगः॥
अर्थात् हित आहार और विहार का सेवन करने वाला, सम्यक् प्रकार से हिताहित विवेक पूर्वक कार्य करने वाला, पञ्चेन्द्रियों के विषय में आसक्त नहीं रहने वाला, दान की प्रवृत्ति वाला, समता भाव को धारण करने वाला, सदैव सत्य में तत्पर, क्षमा भाव को धारण करने वाला और आप्तजनों की सेवा में संलग्न मनुष्य ही निरोग रहता है।
यहाँ निरोग रखने के लिए जिस आचरण का निर्देश किया गया है वह सर्वथा जैन धर्म सम्मत और जैन धर्मानुयायी श्रावक द्वारा आचरणीय है। इस प्रकार का आचरण सात्विक होता है और वह आरोग्य सम्पादन के साथ-साथ आत्मोन्नयन या आत्मा को निर्मल बनाने में सहायक होता है। आचरण की शुद्धता के कारण अन्तःकरण में सात्विक भाव का उदय एवं उत्कर्ष होता है। जिससे मनुष्य की प्रवृत्ति अशुभ कर्मों से हटकर शुभ कर्मों में होती है।
__ आरोग्य सम्बन्धी अन्यान्य बातों का उल्लेख विस्तार पूर्वक आयुर्वेद शास्त्र में किया गया है। अतः वहाँ उसका अवलोकन कर तद्विषयक सभी बातों का ज्ञान प्राप्त करना चाहिए। आयुर्वेद शास्त्र यद्यपि रोग निवृत्ति का उपाय बतला कर तथा स्वास्थ्य रक्षा के मूलभूत सिद्धान्तों का निरूपण कर मात्र भौतिक शरीर की रक्षा और उसके सवंर्द्धन की प्रेरणा देता है, तथापि यह एक महत्वपूर्ण तथ्य है कि वह आरोग्य साधन के साथ-साथ परोक्ष रूप से मोक्ष साधन में भी कारण भूत है। वह यद्यपि मोक्ष साधन के उपायों का निर्देश नहीं करता है, तथापि मोक्ष साधन के मूल समझे जाने