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अनेकान्त 68/1, जनवरी-मार्च, 2015 में वर्णित प्रतिपाती, अप्रतिपाती इन दो भेदों का भी उल्लेख देशावधि के आठ भेदों में किया है। तत्त्वार्थवार्तिक के अनुसार अवधिज्ञान के तीन भेद- देशावधि, परमावधि, सर्वावधि है। जिनमें देशावधि के वर्धमान, हीयमान, अवस्थित, अनवस्थित, अननुगामी, अप्रतिपाती, प्रतिपाती ये आठ भेद होते हैं। परमावधि के हीयमान और प्रतिपाती को छोड़कर शेष छह भेद पाये जाते हैं। सर्वावधि के अवस्थित, अनुगामिक, अननुगामिक और अप्रतिपाती ये चार भेद होते हैं।
अकलंक ने आगे वर्णन करते हुए कहा है कि परमावधि, सर्वावधि से द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की दृष्टि से न्यून है। इसलिए परमावधि भी वास्तव में देशावधि है। अकलंक ने षट्खण्डागम में वर्णित एकक्षेत्र और अनेकक्षेत्र, इन दो भेदों का उल्लेख नहीं किया है।
विद्यानंद ने प्रतिपाती और प्रतिपाती इन दो भेदों को तत्त्वार्थ सूत्र के छह भेदों में उल्लिखित किया है।'
इस प्रकार समय के व्यतीत होने पर जैनाचार्यों ने अवधिज्ञान के भेदों को व्यवस्थित किया है तथा अंत में नंदी सूत्र में वर्णित छह भेदों को ही मान्य किया है।
उपर्युक्त वर्णित सारे भेद गुणप्रत्यय अवधिज्ञान के ही प्रतीत होते हैं। इसको स्पस्ट करने के लिए आवश्यकनियुक्तिकार और विशेषावश्यकभाष्यकार ने क्षेत्र परिमाण, संस्थान, आनुगामिक, अनानुगामिक, अवस्थित और देश द्वार में किये वर्णन को गुणप्रत्यय (मनुष्य और तिर्यंच की अपेक्षा) में रखा है। षट्खण्डागम में गुणप्रत्यय के बाद देशावधि आदि तरेह प्रकार बताए हैं। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि ये भेद गुणप्रत्यय के हैं। आचार्य नेमिचन्द्र और अमृतचन्द्र का भी ऐसा ही मानना है। लेकिन धवलाटीकाकार ने यह स्पष्ट किया है कि यह अवधिज्ञान के सामान्य रूप से भेद हैं क्योंकि अवस्थित, अनवस्थित, अनुगामी, अननुगामी आदि भेद भवप्रत्यय ज्ञान में भी घटित होते हैं।
उपर्युक्त वर्णन के आधार पर यह निष्कर्ष निकलता है कि आवश्यकनियुक्ति और षट्खण्डागम में उपर्युक्त भेदों का वर्णन अवधिज्ञान