________________ आगम निबंधमाला स्वाध्याय से कर्मबंध में नहीं पडकर कुछ ज्ञान और समभाव तथा कर्म निर्जरा हांसिल कर आत्म विकास को पार्वे / तदुपरांत जो कोई मात्र छिद्रान्वेषी या दोषदर्शी बनकर अर्थात् हीनभावनाओं के वशवर्ती होकर संपादक लेखक को अगुली दिखाने की एवं हीलना निदा कुथली करने में रस लेने की वृत्ति, राग-द्वेष के मानस से करेंगे, वे हमारे आगम अनुभव एवं श्रम से निर्जरा लाभ करने की वजाय कर्मबंध के लाभ को पाकर अपनी आत्मा को भारी करेंगे। उनके लिये हम अपार करुणा भाव एडवास में ही प्रेषित कर शुभाकाक्षा करते हैं कि उन्हें गुणग्राहकता की बुद्धि होवे और जिससे वे स्व पर के कर्मबंध के भागी नहीं बनें / इसी शुभाकांक्षा के साथ। निबंध-४ जैनागम समुत्पत्ति तथा परम्परा आगमश्रुत प्रवाह :- तीर्थंकर प्रभु महावीर स्वामी को दीक्षा लेने के बाद 12 वर्ष 5 महिना 15 दिन साधना का पूर्ण होने पर केवल ज्ञान, केवलदर्शन उत्पन्न हुआ। उसके दूसरे दिन वैशाख सुद-११ के दिन प्रवचन के अनंतर इन्द्रभूति गौतम आदि की दीक्षा हुई / भगवान के प्रवचन का प्रारूप उववाई सूत्र में है वही समझना / गौतम आदि अणगारों को भगवान ने(आचारांग सूत्रानुसार) छज्जीवनिकाय एवं महाव्रतों का स्वरूप समझाया / उपन्ने, विगमे, धुवे इस त्रिपदी की बात या ओंकार ध्वनि आदि अन्य परंपराओं से प्राप्त तत्त्व है / तथापि आगम औपपातिक एवं आचारांग सूत्र के अनुसार उनकी अनावश्यकता स्पष्ट होती है। . गणधरों द्वारा आगम रचना एवं प्रवाह :- तीर्थंकर की प्रथम देशना के दीक्षित श्रमणों में से कुछ श्रमण पर्वभव से गणधर लब्धि नामकर्म सत्ता में लाये हुए होते हैं / उन सभी को संयम स्वीकार करने के अनंतर द्वादशांगी श्रुत उपस्थित हो जाता है / उनकी संख्या निश्चित नहीं है / वे गणधर 8,9,11 यावत् 84 आदि हो सकते हैं। वे सभी गणधर मिलकर शासन के प्रारंभ से ही तीर्थंकर प्रभु की आज्ञा से, स्मृति में आये द्वादशांगी ज्ञान के आधार से अपने तीर्थंकर के शासन के अनुरूप संपूर्ण द्वादशांगी का संपादन, रचना, सर्जन men