Book Title: Acharang Sutram Part 03
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ 8 // 1-6-1 - 1 (186) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन करता है, किंतु सरोवर बहोत हि बडा होने के कारण से और जलचर जंतुओं की अधिकता के कारण से वह कच्छुआ उस छिद्र को प्राप्त न कर शका, किंतु यहां वहां भटकता हुआ मरण को प्राप्त हुआ... .. इस दृष्टांतका उपनय इस प्रकार है... संसार स्वरूप सरोवर है, कच्छुए के समान भव्य जीव तथा सेवल में छिद्र के समान कर्म विवर... और चांदनी से परिपूर्ण आकाश के समान मनुष्य जन्म, आर्य क्षेत्र, उत्तम कुल और सम्यक्त्व की प्राप्ति... तथा परिवार की ममता के कारण से या विषय भोगों के उपभोग के लिये प्रयत्न करने से वह भव्य जीव सदनुष्ठान से विकल होता हुआ सफलता को प्राप्त नहि करता... और मनुष्यजन्मादि उत्तम सामग्री के अभाव में उस जीव को संसार-सरोवर में पुनः कब ऐसा शुभ योग प्राप्त होगा ? इसलिये कहते हैं कि- सेंकडो जन्मों में दुर्लभ ऐसे . सम्यगदर्शन को पाकर एक क्षण भी प्रमाद नहि करना चाहिये... संसार के अनुरागी मुग्ध जीवों को और भी एक दृष्टांत देकर समझातें हैं, वह इस प्रकार- भंजग याने वृक्ष... जैसे कि- शीत (ठंडी) गरमी, कंपन, छेदन तथा शाखा (डाली) को खींचना, उंची नीची करना, मरोडना और भांगना इत्यादि प्रकार से उपद्रव होने पर भी वह वृक्ष स्थावरादि कर्मो के अधीन होने के कारण से अपना स्थान छोड नहि शकता... इत्यादि... इस दृष्टांत का उपनय प्रस्तुत अर्थ में घटन करते हुए कहते हैं कि- वृक्ष के समान कितनेक भारे कर्मी जीव... वे अनेक प्रकार के उच्च एवं नीच कुल में जन्म पाकर यद्यपि धर्माचरण के योग्य होते हैं, किंतु वे चक्षुरादि इंद्रियों के रूपादि-विषयों में ,आसक्त होकर शारीरिक एवं मानसिक दुःखों से दु:खी होते हैं, तथा राजा आदि के उपद्रवों से दुःखी होते हैं, एवं अग्नि के दाह से सभी घर-सामग्री जलकर नष्ट होने पर अथवा विविध प्रकार के निमित्तों से मानसिक चिंता से दुःखी होते हैं; तथापि सकल दु:खों के निवास मंदिर समान गृहवास को छोड़ने में समर्थ नहि होतें, परिस्थिति वश वे वहां गृहस्थावास में हि रहे हुए वे विभिन्न प्रकार के संकट-कष्ट में करुण रुदन करतें हैं... वह इस प्रकार- हे तात ! हे मात ! हे दैव ! आपको इस स्थिति में हमे दुःखी होने देना योग्य नहि है-इत्यादि... अन्यत्र भी कहा है कि- हे प्रभो ! यह क्या है ? कि- मुझे नारक की तरह अचिंतित अतुल अनिष्ट और अनुपम कष्ट-दुःख अकस्मात आ गये ? इत्यादि... . अथवा तो रूपादि विषयों में आसक्त जीव बहोत सारे कर्म बांधकर नरकादि की वेदना का अनुभव करते हुए करुण रुदन करते हैं... केवल रुदन हि नहि करतें; किंतु उस दुःखों से