________________ 234 // 1- 9 - 1 - 4 (268) // श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन ने साढ़े चार महीने तक जन्तुओं के परीषहों को समभाव पूर्वक सहन किया। ध्यान एवं आत्म-चिन्तन में संलग्न प्रत्येक साधक के लिए यह बताया गया है किउस समय वह शरीर पर से ध्यान हटाकर आत्मभाव में स्थित रहे। ध्यान को कायोत्सर्ग भी कहते हैं। कायोत्सर्ग का अर्थ है- काय (शरीर) का त्याग कर देना। यहां शरीर त्याग का अर्थ- मर जाना नहीं, किन्तु शरीर से अपना ध्यान हटा लेना होता है। उस समय कोई भी जीव-जन्तु उसके शरीर पर डंक भी मारे तब भी वह साधक अपनी साधना से विचलित न होते हुए ओर उस जंतु को न हटाते हुए समभाव पूर्वक अपनी साधना एवं चिन्तन में संलग्न रहे। इस प्रकार की आत्म साधना से कर्मों का क्षय होता है। भगवान महावीर ने यह साधना केवल कायोत्सर्ग ध्यान के समय ही नहीं, किंतु सदा-सर्वदा चालू रखी। वह देवदूष्य वस्त्र भगवान के पास कब तक रहा इसका उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... I सूत्र // 4 // // 268 // 1-9-1-4 संवच्छरे साहियं मासं, जं न रिक्कासि वत्थगं भगवं। . अचेलए तओ चाइ तं वोसिज्ज वत्थमणगारे // 268 // // संस्कृत-छाया : सम्वत्सरं साधिकं मासं यन्न त्यक्तवान् वस्त्रं भगवान् / अचेलकः ततः त्यागी, तत् व्युत्सृज्य वस्त्रमनगारः // 268 // III सूत्रार्थ : भगवान 13 महीने तक वस्त्र को धारण किए हुए रहे तत्पश्चात् वस्त्र को छोडकर वे अचेलक हो गए। IV टीका-अनुवाद : श्रमण भगवान् महावीर स्वामीजी के शरीर के उपर इंद्र ने रखा हुआ देवदूष्य-वस्त्र एक वर्ष एवं कुछ दिन अधिक एक महिना अर्थात् तेरह महिने से कुछ अधिक समय पर्यंत रहा... वस्त्र धारण करना यह स्थविरकल्प है, इस अभिप्राय से परमात्मा ने वस्त्र को धारण कीया... और उस के बाद उस देवदूष्य-वस्त्र का त्याग कर के श्रमण भगवान् श्री महावीर स्वामीजी वस्त्र रहित अचेलक अणगार (साधु) बने.