Book Title: Acharang Sutram Part 03
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan

Previous | Next

Page 351
________________ 322 // 1- 9 - 4 - 16 (333) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन थे... तथा परमात्मा को गृद्धि याने पौद्गलिक पदार्थों के प्रति आसक्ति का अभाव था अतः परमात्मा मन को अनुकूल ऐसे मनोज्ञ शब्दादि विषयों में राग नहि करतें थे, और मन को प्रतिकूल ऐसे अमनोज्ञ विषयों में द्वेषभाव भी नहि रखतें थे... तथा छद्मस्थ याने ज्ञानावरणीयादि चार घातिकर्मों की परिस्थिति में रहे हुए होने पर भी श्रमण भगवान् महावीरस्वामीजी अनेक प्रकार के संयमानुष्ठान में हि पराक्रम याने परुषार्थ करतें थे... अर्थात् परमात्मा प्रमाद एवं कषायभाव कभी भी नहि करते थे... V सूत्रसार : मन एवं चित्तवृत्ति को स्थिर करने के लिए राग-द्वेष एवं कषायों का परित्याग करना आवश्यक है। जब तक जीवन में कषायों का अंघड चलता रहता है, तब तक मन. आत्म चिन्तन में एकाग्र नहि हो सकता। दीपक की लौ हवा के झोंकों से रहित स्थान में ही स्थिर रह सकती है। इसी तरह चिन्तन की ज्योति कषायों की उपशान्त स्थिति में ही स्थिर रहती है। इसके परिज्ञाता भगवान महावीर ने साधना काल में मन एवं चित्त वृत्ति को आत्म-चिन्तन में एकाग्र करने के लिए राग-द्वेष एवं कषायों का परित्याग कर दिया और प्रमाद का भी त्याग करके राग-द्वेष का समूलत: नाश करने के लिए प्रयत्नशील हो गए। प्रमाद शुभ कार्य में बाधक है, वह आत्मा को अभ्युदय के पथ पर बढने नहीं देता है। इसलिए भगवान महावीर ने उसका सर्वथा परित्याग कर दिया था। छद्मस्थ अवस्था में भगवान ने कभी भी प्रमाद का सेवन नहीं किया यह बात इसी अध्ययन के दूसरे उद्देशक की चौथी गाथा में भी बताया है कि- भगवान ने अप्रमत्त भाव से साधना की और यहां इस बात को और स्पष्ट कर दिया है कि- भगवान ने छदमस्थ काल में कभी भी प्रमाद का सेवन नहीं किया था। छद्म का अर्थ होता है- दोष। यहां इसका तात्पर्य द्रव्य दोषों से नहीं, किंतु भाव दोषों से है। ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय कर्म को भाव दोष कहा है। अतः ये भाव दोष जिस आत्मा में रहे हुए हैं, उन्हें छद्मस्थ कहते हैं। और इनका क्षय कर देने पर व्यक्ति सर्वज्ञ-सर्वदशी बन जाता है। साधना काल में भगवान भी छद्मस्थ थे, इनका नाश करने के लिए वे प्रमाद का त्याग करके सदा आत्म-चिन्तन एवं संयम-साधना में संलग्न रहते थे। इस विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... / सूत्र // 16 // // 333 // 1-9-4-16 सयमेव अभिसमागम्म आयतयोगमायसोहीए। अभिनिव्वुडे अमाइल्ले आवकहं भगवं समियासी // 333 //

Loading...

Page Navigation
1 ... 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368