Book Title: Acharang Sutram Part 03
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan

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Page 356
________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 327 श्रुतस्कध - 1 卐 उपसंहार // - यहां नैगमादि सात नयों को ज्ञाननय एवं क्रियानय में समावेश कर के टीका-वृत्तिकार श्री शीलांकाचार्यजी म. संक्षेप से नयका स्वरूप कहतें हैं... प्रस्तुत आचारांग सूत्र ज्ञाननय एवं क्रियानय स्वरूप है, और मोक्षपद ज्ञाननय एवं क्रियानय से हि प्राप्तव्य है... अतः इस आचारांग सूत्र का कथन एवं श्रवण मोक्षपद की प्राप्ति के लिये हि है. इस आचारांगसूत्र में ज्ञाननय एवं क्रियानय परस्पर सापेक्षभाव से हि रहे हुए हैं, और विवक्षित ऐसे मोक्षपद की प्राप्ति के लिये समर्थ हैं, अत: इस महाग्रंथ में जहां कहिं ज्ञान का कथन दिखाइ दे, तब वह ज्ञान, क्रिया से सापेक्ष है, ऐसा समझीएगा... और जहां जहां संयमानुष्ठान का कथन दिखाइ दे, तब वह संयमानुष्ठान सम्यग्ज्ञान से सापेक्ष है ऐसा जानीएगा... अन्यत्र भी कहा है कि- ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्षः, अर्थात् ज्ञान एवं क्रिया के समन्वय से हि मोक्षपद प्राप्त होता है... ___ज्ञाननय का अभिप्राय यह है कि- ज्ञान हि श्रेष्ठ है, क्रिया श्रेष्ठ नहि है, क्योंकि- सभी हेय का त्याग एवं उपादेय का स्वीकार सम्यग्ज्ञान से हि शक्य है... .. जैसे कि- सुनिश्चित ज्ञान के द्वारा प्रवृत्ति करनेवाले मनुष्य को अर्थक्रिया में विसंवाद नहि होता... अन्यत्र भी कहा है कि- पुरुष को इष्ट फल की प्राप्ति सम्यग्ज्ञान से हि होती है, क्रिया से नहि... क्योंकि- मिथ्याज्ञान से प्रवृत्ति करनेवाले मनुष्य को फल की प्राप्ति में विसंवाद देखा जाता है.. इत्यादि... विषय याने हेयोपादेय की व्यवस्था निश्चित हि सम्यग्ज्ञान में रही हुइ है, और हेयोपादेय की व्यवस्था से हि सकल दु:खों का क्षय होता है... यहां अन्वय एवं व्यतिरेक दोनों स्पष्ट हि देखा जाता है, अत: ज्ञान हि श्रेष्ठ है... अन्वय इस प्रकार है.. जैसे कि- सम्यग्ज्ञान होने पर हि अनर्थ एवं संशय का यथासंभव परिहार होता है. और व्यतिरेक इस प्रकार है, जैसे कि- ज्ञान के अभाव में यदि मनुष्य अनर्थों से बचने के लिये उद्यम करे तो भी वह मनुष्य दीपक की ज्योत में पडनेवाले पतंगीये की तरह अधिकाधिक अनर्थों को हि प्राप्त करता है...

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