Book Title: Acharang Sutram Part 03
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan

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Page 357
________________ 328 श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन आगम सूत्र में भी कहा है, कि- पढमं नाणं तओ दया अर्थात् प्रथम ज्ञान और बादमें दया... यह बात क्षायोपशमिक ज्ञान के विषय की है, और क्षायिक ज्ञान के विषय में भी यह बात सुनिश्चित हि है... क्योंकि- जो महावीरस्वामीजी देव-देवेंद्रों को भी वंदनीय है, भव-समुद्र के किनारे पे रहे हुए हैं, तथा चारित्रानुष्ठान के हेतुभूत दीक्षा ली हुइ है, तथा तीनों लोक के जीवों के बंधु हैं और तपश्चर्या के साथ संयमानुष्ठान में दृढ हैं, ऐसे वे परमात्मा भी तब मोक्षपद प्राप्त करेंगे, कि- जब उन्हें जीवाजीवादि अखिल वस्तुओं के परिच्छेद (बोध) करनेवाला केवलज्ञान प्राप्त होगा... इसी कारण से कहते हैं कि- इहलोक के एवं परलोक के फल की प्राप्ति का कारण ज्ञान हि है... इत्यादि यह निरपेक्ष ज्ञाननय का कथन यहां संक्षेप में कहा... अब निरपेक्ष क्रियानय का अभिप्राय कहतें हैं... क्रियानय माननेवाले लोग कहते हैं कि- इस लोक के एवं परलोक के फलों की प्राप्ति का कारण क्रिया हि है.. यह बात निश्चित हि युक्तियुक्त है... क्योंकि- ज्ञान अर्थक्रिया में समर्थ ऐसे पदार्थ का दर्शन-बोध करावे, किंतु प्रमाता (मनुष्य) यदि हेय एवं उपादेय स्वरूप प्रवृत्ति-क्रिया नहि करता, तब वह निष्फल हि रहता है... क्योंकि- ज्ञान का प्रयोजन अर्थक्रिया हि है, किंतु यदि जिस ज्ञान में अर्थक्रिया का असंभव हो तब वह ज्ञान विफल हि माना जाता है... .. यहां यह न्याय प्रसिद्ध है कि- जिस किसी का होना, जिस किसी कार्य के लिये विहित कीया गया है, वह कार्य-क्रिया हि उस के लिये प्रधान है, शेष सभी अप्रधान है... ज्ञान से होनेवाली हेयोपादेय स्वरूप विषय व्यवस्था भी अर्थक्रिया स्वरूप है अतः क्रिया हि श्रेष्ठ है.. तथा अन्वय एवं व्यतिरेक भी क्रिया में उपलब्ध होता है... जैसे किचिकित्सा-विधि की क्रिया करने वाला मनुष्य अभिलषित आरोग्य को प्राप्त करता है... यह अन्वय... तथा जो मनुष्य चिकित्सा विधि जानता है, किंतु जब तक उस चिकित्सा विधि को करता नहि है, तब वह मनुष्य अभिलषित आरोग्य को प्राप्त नहि कर शकता... यह व्यतिरेक... अन्यत्र भी कहा है कि- शास्त्रों का पठन करने के बाद भी मनुष्य क्रियानुष्ठान के अभाव में मूर्ख माना गया है. और क्रियानुष्ठान करनेवाला मनुष्य विद्वान माना गया है... क्यों कि- औषध का ज्ञान होने मात्र से रोगी मनुष्य आरोग्य प्राप्त नहि करता... तथा अन्यत्र लोकनीति में भी कहा गया है कि- पुरुष को क्रिया हि फल देती है... . अकेला ज्ञान सफल नहि है, जैसे कि- भोजन आदि के रस को जाननेवाला मनुष्य जब तक भोजन की क्रिया नहि करता तब तक उसे भोजन का सुख नहि मीलता... यह कैसे ? ऐसा यदि प्रश्न हो, तब कहते हैं कि- वस्तु-पदार्थ को देखने मात्र से

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