Book Title: Acharang Sutram Part 03
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan

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Page 360
________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 331 से रहित, शाश्वत, अनंत, अजर, अमर, अक्षय, अव्याबाध एवं राग-द्वेषादि सभी द्वन्द्वों से रहित, परमार्थ से परमकार्य स्वरूप एवं अनुत्तम इत्यादि अनंत गुणगण वाले मोक्षपद को चाहनेवाले एवं सम्यग्-दर्शन-ज्ञान-व्रतचरणक्रिया-कलापवाले साधुओं को यह आचारांग सूत्र सदा आलंबन करने योग्य है... सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक्रिया स्वरूप ब्रह्मचर्य नामवाले इस प्रथम श्रुतस्कंध की टीका स्वरूप व्याख्या निर्वृत्तिकुल के शीलाचार्यजी (शीलांकाचार्यजी) ने वाहरि नाम के मुनिपुंगव की सहायता से परिपूर्ण की है... श्री शीलाकांचार्यजी का दुसरा नाम तत्त्वादित्य था... गुप्त संवत्सर 772 वर्ष में भादरवा सुदी पंचमी गंभूता (गांभू) गांव में श्री शीलांकाचार्यजी ने यह टीका बनाइ है... श्री शीलांकाचार्यजी सज्जनों से नम्र निवेदन करते हुए कहते हैं कि- मात्सर्यादि दोष नहि करनेवाले आर्य सज्जन लोगों को मैं नम्र निवेदन करता हूं कि- इस महाग्रंथ की व्याख्याटीका में जहां कहिं क्षति-त्रुटि रही हो, तो उस क्षति का संशोधन कर के पढीएगा... श्री शीलांकाचार्यजी कहते हैं कि- आचारांग सूत्र की टीका-व्याख्या बनाकर जो कुछ पुण्य प्राप्त हुआ हो, उस पुण्य से यह संपूर्ण जगत (विश्व) पंचाचार स्वरूप सदाचार के द्वारा अतुल निर्वाण पद को प्राप्त करें... इस आचारांगसूत्र की टीका-व्याख्या बनाते हुए मैंने जहां कहि वर्ण, पद, वाक्य एवं पद्य आदि की टीका-व्याख्या न की हो, तो उन वर्णादि को सज्जन लोग स्वयं या अन्य गीतार्थ गुरूजी से समझ लें... क्योंकि- छद्मस्थ ऐसा मैं संपूर्ण ज्ञानी तो नहि हुं... इत्यादि... // इति ब्रह्मचर्य-श्रुतस्कन्धः // राजेन्द्र सुबोधनी “आहोरी” हिन्दी-टीकायाः लेखन-कर्ता ज्योतिषाचार्य श्री जयप्रभविजयजित् “श्रमण' : प्रशस्ति : सुधर्मस्वामिनः पट्टे सप्त षष्टितमे शुभे। सुधर्मस्वामी श्रीमद् विजयराजेन्द्र - सूरीश्वरः समभवत् . // 1 // राजेन्द्रसूरि विद्वद्वर्योऽस्ति तच्छिष्यः श्रीयतीन्द्रसूरीश्वरः / श्रमण" "श्रमण'' इत्युपनाम्नाऽस्ति तच्छिष्यश्च जयप्रभः // 2 // जयप्रभः "दादावाडी'ति सुस्थाने जावरा-नगरेऽन्यदा / दादावाडी स्फु रितं चेतसि श्रेयस्करं आगमचिन्तनम् // 3 // जावरा. म.प्र.

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