Book Title: Acharang Sutram Part 03
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ 324 1 -9-4 - 17(334) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन मार्ग से विचलित नहीं होना चाहिए। उसे सदा उत्पन्न होने वाले परीषहों को समभाव से सहन करना चाहिए। इस तरह भगवान महावीर समिति-गप्ति से यक्त होकर साढे बारह वर्ष तक विचरे ओर अपनी साधना के द्वारा राग-द्वेष एवं घातिकर्मों का क्षय करके सर्वज्ञ बने ओर आयु कर्म के क्षय के साथ अवशेष अघातिकर्मों का क्षय करके सिद्ध-बुद्ध एवं मुक्त हो गए। प्रस्तुत उद्देशक का उपसंहार करते हुए सूत्रकार महर्षि अंतिम सूत्र कहते हैं... I सूत्र // 17 // // 334 // 1-9-4-17 एस विहि अणुक्कतो, माहणेण मईमया / बहुसो अपडिन्नेण, भगवया एवं रीयंति त्ति // 334 // त्तिबेमि II संस्कृत-छाया : एषः विधिः अनुक्रान्त: माहनेन मतिमता। बहुश: अप्रतिज्ञेन, भगवता एवं रीयन्ते // 334 // इति ब्रवीमि II सूत्रार्थ : निदान प्रतिज्ञा से रहित एवं ऐश्वर्य संपन्न, परम मेधावी भंगवान महावीर ने उक्त विधि का अनेक बार आचरण किया और उनके द्वारा आचरित एवं उपदिष्ट इस विधि का अपने आत्म विकास के लिए अन्य साधक भी इसी प्रकार परिपालन करते हैं। इसी प्रकार मैं (सुधर्मस्वामी) हे जंबू ! तुम्हें कहता हूं। IV टीका-अनुवाद : - अब प्रथम श्रुतस्कंध के नव अध्ययन एवं उनके उद्देशकों के अर्थ का उपसंहार करते हुए ग्रंथकार महर्षि कहते हैं कि- प्रथम श्रुतस्कंध के शस्त्रपरिज्ञादि से लेकर यहां तक, जो कुछ संयमानुष्ठान का विधान कीया है, उन सभी संयमानुष्ठान को हे भगवन् ! आपने स्वयमेव ज्ञ परिज्ञा से जाना एवं आसेवनपरिज्ञा से आसेवित कीया हैं। आप मतिमान् हो, अथात् मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान एवं मन:पर्यवज्ञान स्वरूप चार ज्ञानवाले हो, अनिदान याने नियाण नहि करनेवाले हो, एवं ऐश्वर्यादि गुणवाले हो तथा इस जन्म में केवलज्ञान प्राप्त करके सकल कर्मो का क्षय कर के मोक्षपद पानेवाले हो... चरमशरीरी भगवान् श्री महावीरस्वामीजी भी स्वयमेव मोक्षमार्ग स्वरूप रत्नत्रयी की उपासना में आनेवाले परीषह एवं उपसर्गादि को जितकर संयमानुष्ठान में उद्यमवाले होते हैं, यह बात सुनकर अन्य मुमुक्षु साधु-श्रमण भी मोक्षमार्ग स्वरूप सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र में