Book Title: Acharang Sutram Part 03
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan

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Page 352
________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका // 1- 9 -4 -16 (333) // 323 II * संस्कृत-छाया : स्वयमेव अभिसमागम्य, आयतयोगमात्मशुद्धया। अभिनिर्वृत्तिः अमायावी यावत् कथं भगवान् समितः आसीत् // 333 // III सूत्रार्थ : . स्वतः तत्त्व को जानने वाले भगवान महावीर अपनी आत्मा को शुद्ध कर ने के लिये त्रियोग को वश में करके कषायों से निवृत्त हो गए थे और वे समिति एवं गुप्ति के परिपालक थे। IV टीका-अनुवाद : संसार के स्वभाव को जाननेवाले स्वयंबुद्ध श्रमण भगवान् श्री महावीरस्वामीजी स्वयमेव तत्त्व को जानकर तीर्थप्रवर्तन के लिये उद्यमवाले हुए थे... ___ अन्यत्र भी कहा है कि- हे भगवान् ! इस तीन लोक में सारभूत ऐसे अनुपम शिव पद को प्राप्त करनेवाले आपको आदित्यादि नव लोकांतिक देवताओं के समूह ने कहा किहे भगवन् ! संसार के भय को छेदनेवाले तीर्थ का शीघ्र ही प्रवर्तन करो !!! / यद्यपि आप स्वयंबुद्ध हो हि, तो भी हम देवता लोग आप को नम्र भाव से यह उपरोक्त - विनंती करते हैं... लोकभाव के शाश्वत-कल्प के अनुसार यह हमारी नम्र विनंती है... इत्यादि हे भगवन् ! आप पांच समिति से समित एवं तीन गुप्तिओं से गुप्त हो ! तथा आप अमायावी हो, अक्रोधी हो, ज्ञानावरणीयादी चार घातिकर्मो के क्षयोपशमादि स्वरूप आत्मशुद्धि से मन वचन एवं काययोग का प्रणिधान करके विषय एवं कषायादि के निग्रह के द्वारा आप संवर भाववाले हो !!! V सूत्रसार : प्रस्तुत गाथा में बताया है कि- भगवान ने किसी के उपदेश से दीक्षा नहीं ली थी किंतु वे स्वयंबुद्ध थे, अपने ही सम्यग् ज्ञान के द्वारा उन्होंने साधना पथ को स्वीकार किया और राग-द्वेष मोह एवं प्रमाद का त्याग करके आत्म-चिन्तन के द्वारा चार घातिकर्मों का सर्वथा नाश करके वे सर्वज्ञ एवं सर्वदर्शी बने। साधना पथ पर चलने वाले साधक के सामने कितनी कठिनाइयां आती हैं, यह भी उनके जीवन की साधना से स्पष्ट हो जाता है। उन्होंने कह कर ही नहीं, बल्कि स्वयं संयम साधना करके यह बता दिया कि- साधक को प्राणान्त कष्ट उत्पन्न होने पर भी अपने साधना

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