Book Title: Acharang Sutram Part 03
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan

Previous | Next

Page 309
________________ 280 1 - 9 - 2 - 12 (299) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन से भी प्रभुजी कभी भी विचलित नहीं हुए। इस तरह कष्ट देने वाले प्राणियों पर भी मैत्री भाव रखते हुए भगवान घोर कष्टों को समभाव से सहते रहे। इस संयम साधना से भगवान ने कर्म समूह का नाश कर दिया। अत: कर्मों की निर्जरा के लिए यह आवश्यक है कि- साधक अपने ऊपर आने वाले परीषहों को समभाव से सहन करे। साधक को सदा-सर्वदा ध्यान रखना चाहिए कि- संयम साधना काल में सदा मौन रहे, एवं परीषहों के समय सहिष्णु रहे... किसी भी व्यक्ति के द्वारा अधिक आग्रहपूर्वक पूछने पर भगवान ने क्या उत्तर दिया; इस सम्बन्ध में सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... I सूत्र // 12 // // 299 // 1-9-2-12 अयमंतरंसि को इत्थ ? अहमंसित्ति भिक्खु आह१। तुयमुत्तमे से धम्मे, तुसिणीए कसाइए झाइ // 299 // II संस्कृत-छाया : अयमन्तः कोऽत्र ? अहमस्मीति भिक्षुः व्याहृत्य। अयमुत्तमः सः धर्मः, तूष्णीकः कषायितेऽपि ध्यायति // 299 // Im सूत्रार्थ : इस स्थान के भीतर कौन है ? इस प्रकार वहां पर आए हुए व्यभिचारी व्यक्तियों के पूछने पर भगवान मौन रहते। यदि कोई विशेष कारण उपस्थित होता तो वे इतना ही कहते कि- मैं भिक्षु हूं। इतना कहने से भी यदि वे उन्हें वहां से चले जाने को कहते तो भगवान उस स्थान को अप्रीति का कारण समझकर वहां से अन्यत्र चले जाते। और यदि वे उन पर क्रोधित होकर उन्हें कष्ट देते तो भगवान समभाव पूर्वक उसे सहन करते और ध्यान रूप धर्म को सर्वोत्तम जानकर उन गृहस्थों के क्रोधित होने पर भी प्रभुजी मौन रहते हुए अपने ध्यान से विचलित नहीं होते थे। IV टीका-अनुवाद : परमात्मा जब कभी शून्यगृहादि में वसति कर के काउस्सग्ग ध्यान करते थे, तब दुष्टलोग या कर्मचारी आदि पुछते थे कि- यहां अंदर कौन खडा है ? इत्यादि... तब भगवान् श्री महावीरस्वामीजी मौनभाव हि धारण करतें थे... और कभी अधिक दोषों की संभावना हो तब उन दोषों का निवारण करने के लिये परमात्मा कहते थे कि- मैं भिक्षु (साधु) हुं

Loading...

Page Navigation
1 ... 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368