Book Title: Acharang Sutram Part 03
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan

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Page 313
________________ 284 1 -9-2-16 (303)" श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन V सूत्रसार : प्रस्तुत तीन गाथाओं में शीत परीषह का वर्णन किया गया है। इसमें बताया गया है कि- जब हेमन्त ऋतु का प्रारंभ होता है, सर्दी पडने लगती है उस समय सब लोग कांपने लगते हैं। जब शीतकाल की ठण्डी हवा चलने लगती है तो सब लोग घबरा कर बंध स्थानों में रहने का प्रयत्न करते हैं। शाक्यादि श्रमण साधु भी बर्फ पडने एवं ठण्डी तथा बर्फीली हवा के चलने पर निर्वात अनुकूल स्थानों में चले जाते हैं... उस समय पार्श्वनाथ भगवान के शासन में रहे हुए साधु भी सर्दी की मौसम में अनुकूल स्थान ढूंढने का प्रयत्न करते थे। अन्य संप्रदायों के साधु भी बंध स्थानों की खोज में फिरते रहते थे। ___ कई एक साधु शीत से बचने के लिए वस्त्र-चादर-कम्बल आदि रखते थे। कुछ अन्य मत के साधु अग्नि तापते थे। इस तरह वे शीत निवारण के लिए मकान, वस्त्र, कम्बल एवं अग्नि आदि का सहारा लेते थे। कहने का तात्पर्य यह है कि- शीत परीषह को सहन करना कठिन है। कोई मुनि निर्दोष साधनों से यथाशक्य शीत से बचने के प्रयत्न करते हैं, तब जीवाजीवादि ज्ञान से रहित एवं अपने आप को साधु मानने वाले कुछ सन्यासी-तापस आदि सदोष-निर्दोष साधनों के द्वारा शीत से बचने का प्रयत्न करते हैं। . परन्तु, ऐसे समय में भगवानमहावीर शीत परीषह पर विजय प्राप्त करके अपने आत्मचिन्तन में संलग्न रहते थे। हेमन्त काल में निर्वात मकान में नहीं ठहरते थे। और शीत निवारण के लिए अपने शरीर पर वस्त्र भी नहीं रखते थे दीक्षा ग्रहण करते समय भगवान ने जो देवदूष्य वस्त्र का स्वीकार किया था, वह उनके पास 13 महीने तक रहा। उसके बाद तो उन्होंने वस्त्र का स्वीकार ही नहीं किया। इस तरह भगवान सर्दी से बचने के लिए बंध मकान नहिं ढूंढते, वस्त्र धारण नहि करते और अग्नि भी नहि जलाते एवं तापते भी नहि... कोई भी जैन मुनि शीत निवारण के लिए अग्नि का आरम्भ नही करते हैं। प्रस्तुत उद्देशक का उपसंहार करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... I सूत्र // 16 // // 303 // 1-9-2-16 एस विहि अणुक्कन्तो माहणेण मइमया। बहुसो अपडिण्णेण भगवया एवं रीयन्ति त्तिबेमि // 303 // II संस्कृत-छाया : एष विधिः अनुक्रान्तः, माहनेन मतिमता। बहुशः अप्रतिज्ञेन भगवता एवं रीयन्ते इति ब्रवीमि // 303 //

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