________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 9 - 4 - 13 (330) // 317 सूत्रकार फिर से इसी विषय में आगे का सूत्र कहते हैं... सूत्र // 13 // // 330 // 1-9-4-13 अवि सूइयं वा सुक्कं वा, सीयं पिंडं पुराण कुम्मासं। अदु वुक्कसं पुलागं वा लद्धे पिंडे अलद्धे दविए // 330 // II संस्कृत-छाया : अपि सूपिकं वा शुष्कं वा, शीतं पिंडं पुराणकुल्माषं। अथ बुक्कसं पुलाकं वा, लब्धे पिण्डे अलब्धे द्रविकः // 330 // III सूत्रार्थ : दधि आदि से मिश्रित आहार, शुष्क आहार, पर्युषित आहार पुराने कुल्माष और पुराने धान्य का बना हुआ आहार, जौ का बना हुआ आहार मिलने या न मिलने पर संयम युक्त भगवान किसी प्रकार का राग द्वेष नहीं करते थे। IV टीका-अनुवाद : सूपिक याने दहिं आदि में चावल भीगोये हुए हो, तथा शुष्क याने वाल-चणे इत्यादि... तथा शीतपिंड याने पर्युषित पक्वान्न-खाखरा आदि तथा पुराणकुल्माष याने बहोत दिन से सेके या तात्काल पकाये हुए कुल्माष (ऊडद) आदि... बुक्कस याने चिरकालके धान्य-ओदन अथवा पुराना सक्तुपिंड (साथवा) अथवा बहु दिनों से भरा हुआ गोरस वाला गेहुं के मंडक... तथा पुलाक इत्यादि आहारपिंड को प्राप्त होने पर राग एवं द्वेष से रहित द्रविक याने संयमी भगवान्, अन्य भी कोइ प्रकार के आहारादि पिंड प्राप्त हो या प्राप्त न हो तो भी समता भाव रखने वाले द्रविक याने संयमी भगवान् श्री महावीरस्वामीजी प्रमाणोपेत या शोभन (अच्छा) आहारादि मीलने पर उत्कर्ष अभिमान नहि कहते थे, और प्रमाणोपेत आहारादि न मीलने पर एवं अशोभन आहारादि प्राप्त होने पर परमात्मा अपने आत्मा की, या आहारादि पिंड की, या दान देनेवाले दाता की निंदा नहि करतें थे... V सूत्रसार : साधु का जीवन आत्म-साधना का जीवन है। साधना में सहयोगी होने के कारण वह शरीर को आहार-पानी देता है। परन्तु उसमें वह इतना ध्यान अवश्य रखता है कि- अपने शरीर के पोषण में कहीं दूसरे प्राणियों का नाश न हो जाए। इस कारण वह सदा निर्दोष आहार ही स्वीकार करता है और समय पर सरस-नीरस जैसा भी आहार उपलब्ध हो उसे समभाव पूर्वक ले लेता है। वह उसमें हर्ष या शोक नहीं करता।