Book Title: Acharang Sutram Part 03
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan

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Page 333
________________ 304 // 1 - 9 - 4 - 1(318) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन 0 0 0 0 / 0 (5) अढाइ मासी- 2 2 // 43042-150, 0 - 5 - 0 दो मासी 243046%360, 1 (7) डेढ मासी 2 1 // 43042=90, 0 - 3 - (8) मास क्षमण- 12 1430x12=360, 1 - 0 . (9) पक्ष क्षमण- 72 // 430472=1080, 3 - (10) सर्वतो भद्रप्रतिमा- 1 10 दिवस की=१०, 0 - 0 - (11) महाभद्रप्रतिमा- 1 4 दिवस की=४, 0 - 0 - 4 (12) अष्टम 12 3412-36, 0 - 1 - 6 (13) षष्ठ 229 24229=458, 1 - 3 - 8 (14) भद्र प्रतिमा 1 दो दिन=२. 0 - 0 - 2 (15) दीक्षा दिवस 1 एक दिन-१, (16) पारणा 349 349 दिन की=३४९,० - 11 - 19 (17) कुल दिवस 4515- वर्ष 12 मास 6 दिन 15 अतः आत्मविकास के लिए तप अत्यावश्यक है। इसी कारण भगवान महावीर ने संयम-साधना काल में कठोर तपश्चर्यां साधना की है... इस अभिसंबंध से आये हुए चौथे उदेशक का यह प्रथम सूत्र है... I सूत्र // 1 // // 318 // 1-9-4-1 ओमोयरियं चाएइ, अपुठेवि भगवं रोगेहिं। पुढे वा अपुढे वा नो से साइज्जई तेइच्छं // 318 // , II संस्कृत-छाया : अवमौदर्यं शक्नोति, अस्पृष्टोऽपि भगवान् रोगैः / स्पृष्टो वा अस्पृष्टो वा न सः स्वादयति (अभिलषति) चिकित्साम् // 318 // III सूत्रार्थ : भगवान महावीर रोगों के स्पर्श होने या न होने पर भी ऊणोदरी तप में समर्थ थे। इसके अतिरिक्त श्वानादि के काटने पर या श्वासादि रोग के होने पर भी वे औषधि सेवन की इच्छा नहीं करते थे। IV टीका-अनुवाद : ग्रंथकार महर्षि कहते हैं कि- शीत, उष्ण, दंशमशक एवं आक्रोशादि परीषह सहन

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