________________ 312 // 1-9-4 -8 (3२५)卐 श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन V सूत्रसार : भगवान की तपस्या का वर्णन करते हुए बताया गया है कि- भगवान कभी दो उपवास के बाद पारणा करते थे। इसी तरह कभी तीन, कभी चार और कभी पांच उपवास के बाद पारणा करते थे। इससे भगवान की आहार एवं शरीर आदि के प्रति स्पष्ट रूप से अनासक्ति प्रकट होती है। छद्मस्थकाल में उनका अधिक समय तप एवं आत्म चिन्तन में ही लगता था। ___ प्रस्तुत गाथा में प्रयुक्त 'छट्टैण एगया भुंजे' का “दो उपवास के बाद" यह अर्थ कैसे हुआ ? इसके समाधान में यह कहा जा सकता है कि- वृत्तिकार ने इसका यही अर्थ किया है कि- उपवास के पहले दिन के दो वक्त में से एक वक्त आहार करते हैं, उपवास के प्रथम एवं द्वितीय दिन के दोनों वक्त आहार नहीं करते और पारणे में दिन भी दो वक्त में से एक वक्त आहार करते हैं, इस तरह 1 + 2 + 2 + 1 = 6 अर्थात् षष्ठभक्त का अर्थ दो उपवास होता है। भगवान की जीवन चर्या का दिग्दर्शन देते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैंसूत्र // 8 // // 325 // 1-9-4-8 णच्चा णं से महावीरे, नोऽवि य पावगं सयमकासी। अन्नेहिं वा ण कारित्था, कीरंतंपि नाणुजाणित्था // 325 // , संस्कृत-छाया : . ज्ञात्वा सः महावीरः, नापि च पापकं स्वयमकार्षीत् / अन्यैः वा न अचीकरत् क्रियमाणमपि नानुज्ञातवान् // 325 // III सूत्रार्थ : हेय, ज्ञेय और उपादेय रूप पदार्थों को जान कर श्रमण भगवान महावीर ने स्वयं पापकर्म का आचरण नहीं किया, न दूसरों से करवाया और पाप कर्म करने वालों का अनुमोदन भी नहीं किया। IV टीका-अनुवाद : हेय एवं उपादेय को जाननेवाले परमात्मा श्रमण भगवान् श्री महावीरस्वामीजी कर्मो के विपाक को सहन करते हुए वे कभी भी स्वयं पापकर्म नहि करतें थे... अन्य के द्वारा भी पापकर्म नहि करवातें थें, और अन्य मनुष्य स्वयमेव पापकर्म करे तो उस पापकर्म की अनुमोदना भी नहिं करतें थें...