Book Title: Acharang Sutram Part 03
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan

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Page 334
________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 71 - 9 - 4 - 2 (319) 305 करना शक्य है, किंतु ऊणोदरी याने अल्प आहार करना अति मुश्केल है, श्रमण भगवान् महावीरस्वामीजी वात-पीतादि दोष स्वरूप रोगों के अभाव में भी ऊणोदरी तपश्चर्या करते थे... यद्यपि सामान्य लोग रोगों की परिस्थिति में रोगों के निवारण के लिये ऊणोदरी अवश्य करतें हैं, किंतु परमात्मा तो रोगादि के अभाव में भी ऊणोदरी तप सदा करतें थे... द्रव्यरोगों के हेतुभूत असातावेदनीयादि एवं राग-द्वेषादि भावरोगों के हेतुभूत मोहनीय कर्मादि विनाश के लिये परमात्मा सदा ऊणोदरी तप करतें थे... -- यहां शिष्य प्रश्न करता है कि- क्या परमात्मा को द्रव्य रोग की पीडा नहि सताती थी ? कि- जिस कारण से आप "भावरोगों से स्पृष्ट" ऐसी बात कहते हो ? इस प्रश्न के उत्तर में गुरूजी कहते हैं कि- सामान्य मनुष्यों को होनेवाले कास-श्वासादि रोग तीर्थंकर परमात्मा को नहि होतें, किंतु उपसर्गों से संभवित शस्त्रप्रहारादि की पीडा-वेदना स्वरूप द्रव्यरोग परमात्मा को होतें थे, तथापि महावीरस्वामीजी उस पीडा की चिकित्सा नहि करतें थे... और द्रव्यऔषधादि से रोग की पीडा दूर हो, ऐसा भी नहि चाहते थे... परंतु सदा ऊणोदरी तप करते थे... v सूत्रसार : शरीर रोगों का घर है। इसमें अनेक रोग रहे हुए हैं। जब कभी असाता वेदनीय कर्म के उदय से कोई रोग उदय में आता है तो लोग उसे उपशान्त करने के लिए औषध एवं पथ्य * का सेवन करते हैं। परन्तु, भगवान महावीर अस्वस्थ अवस्था में भी औषध का सेवन नहीं करते थे। तथा स्वस्थ अवस्था में भी स्वल्प आहार करते थे। स्वल्प आहार के कारण उन्हें कोई रोग नहीं होता था। फिर भी कुत्तों के काटने या अनार्य लोगों के प्रहार से जो घाव आदि हो जाते थे, तब भी परमात्मा उनकी चिकित्सा नहीं करते थे। यदि कभी श्वास आदि की पीडा हो तब भी वे औषध नहीं लेते थे। वे समस्त परीषहों एवं कष्टों को समभाव पूर्वक सहन करते थे और तप के द्वारा द्रव्य एवं भाव रोग को दूर करने का प्रयत्न करते थे। इसी विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... I सूत्र // 2 // // 319 // 1-9-4-2 संसोहणं च वमणं च, गायब्भंगणं च सिणाणं च। संवाहं च न स कप्पे दन्तपक्खालणं च परिन्नाए // 319 // संस्कृत-छाया : संशोधनं च वमनं च, गात्राभ्यंगनं च स्नानं च। संबाधनं च न तस्य कल्पते दन्तप्रक्षालनं च परिज्ञाय // 319 //

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