________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका // 1 - 9 - 2 - 11 (298) // 279 I सूत्र // 11 // // 298 // 1-9-2-11 स जणेहिं तत्थ पुच्छिंसु एगचरा वि एगया राओ। अव्वाहिए कसाइत्था पेहमाणो समाहिं अपडिपन्ने // 298 // II संस्कृत-छाया : स जनस्तत्र (पृष्टः) अप्राक्षि एकचरा अपि एकदा रात्रौ। अव्याहृते कषायिता: प्रेक्षमाणः समाधिमप्रतिज्ञः // 298 // III सूत्रार्थ : . उन, शून्य स्थानों में स्थित भगवान को राह चलते व्यक्ति एवं दुराचार का सेवन करने के लिए एकान्त स्थान का खोज करने वाले व्यभिचारी व्यक्ति पूछते कि- तुम कौन हो ? यहां क्यों खड़े हो ? भगवान उनका कोई उत्तर नहीं देते। इससे वे क्रोधित होकर उन्हें मारनेपीटने लगते, तब भी भगवान शान्त भाव से परीषहों को सहन करते। परन्तु, प्रभुजी उनसे प्रतिशोध वैर का बदला लेने की भावना नहीं रखते थे। IV टीका-अनुवाद : - श्रमण भगवान् महावीरस्वामीजी छद्मस्थकाल के साढे बारह वर्ष दरम्यान ग्रामानुग्राम विहार करते हुए जब कभी शून्यगृहादि में ठहरते तब क्यों ठहरे हो ? आप कहां के रहनेवाले हो ? इत्यादि कोइ भी प्रश्न करे तब परमात्मा मौनभाव को हि धारण करते थे, प्रभुजी कभी भी किसी के भी ऊपर वैरानुबंध के भाव नहि करतें... इत्यादि... V सूत्रसार : - भगवान महावीर साधना काल में प्रायः शून्य घरों में ठहरते और वहीं ध्यान में संलग्न रहते। ऐसे स्थानों में प्रायः चोर या व्यभिचारी या जुआरी आदि व्यसनी लोग छुपा करते थे या दुर्व्यसनों का सेवन किया करते थे। इसलिए कुछ लोग प्रभुजी को चोर समझकर मारतेपीटते एवं अनेक तरह स कष्ट देते। कुछ दुर्व्यसनी एवं व्यभिचारी व्यक्ति वहां अपनी दुर्वृत्ति का पोषण करने पहुंचते तब वहां भगवान को खड़े देखकर उन्हें पूछते कि- तुम कौन हो ? और यहां क्यों खड़े हो ? भगवान उसका कोई उत्तर नहीं देते। तब वे प्रभुजी को अपने दुराचार के पोषण में बाधक समझ कर आवेश में आकर अनेक तरह के कष्ट देते। इस तरह अनेक व्यक्ति भगवान को अनेक कष्ट देते थे। फिर भी वह महापुरुष सुमेरू पर्वत की तरह अपनी संयम साधना में स्थिर रहे / वचन और शरीर से तो क्या ? किंतु मन