________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 卐१-९-२-९ (२९६)卐 277 III. सूत्रार्थ : भगवान महावीर देव, मनुष्य एवं पशु-पक्षियों द्वारा दिए गए उपसर्गों को समभावपूर्वक सहन करते थे और सुगन्धित एवं दुर्गधि पदार्थों से आने वाली सुगन्ध एवं दुर्गन्ध तथा कटु एवं मधुर शब्द सुनकर उन पर हर्ष एवं शोक नहीं करते थे। IV टीका-अनुवाद : इहलोक संबंधि ऐहलौकिक याने मनुष्यों ने कीया हुआ उपसर्ग... तथा पारलौकिक याने देव तथा तिर्यंचो ने कीये. हुए उपसर्ग... जैसे कि- अस्त्र एवं शास्त्रादि से कीये गये ताडन स्वरूप कठोर स्पर्श के दुःखों को प्रभुजी धैर्यता के साथ सहन करतें हैं..." __अथवा इस जन्म में होनेवाले दंडप्रहारादि प्रतिकूल उपसर्ग तथा जन्मांतर में होनेवाले दुर्गति के भयानक दुःखों के ज्ञाता परमात्मा श्री महावीरस्वामीजी अनुकूल या प्रतिकूल जो भी उपसर्ग होते थे, उन्हे समभाव से सहन करते थे... ' तथा पुष्पमाला एवं चंदन आदि सुगंधवाले अनुकूल उपसर्ग तथा दुर्गंधवाले प्रतिकूल उपसर्गों में भी प्रभुजी अपने धर्मध्यान में सदा अविचलित हि रहते थे... इसी प्रकार वीणा, वेणु, मृदंगादि के मनोज्ञ शब्द तथा मनुष्य के कठोर आक्रोशादि एवं उंट, गद्धे आदि के अमनोज्ञ शब्दों को भी परमात्मा समभावसे सहन करतें थे.. . v सूत्रसार : " भगवान महावीर ने साधना काल में सबसे अधिक कष्ट सहन किए। कहा जाता है कि- उपसर्गों का प्रारम्भ एक ग्वाले की अज्ञानता से हुआ और अंत भी ग्वाले के हाथ से हुआ। पहला और अन्तिम कष्टप्रदाता ग्वाला था। बीच में अनार्य देश में मनुष्यों के द्वारा भी भगवान को अनेक कष्ट हुए... 6 महिने तक संगम देव ने भगवान को निरन्तर कष्ट दिया। एक रात्रि में उसने भगवान को 20 तरह के कष्ट दिये। फिर भी भगवान अपनी साधना में मेरु पर्वत की तरह स्थिर रहे। भगवान का हृदय वज्र से भी अधिक कठोर था, अतः वह दुःखों की महा आग से भी पिघला नहीं और मक्खन से भी अधिक सुकोमल था। कहा जाता है कि- संगम के कष्टों से भगवान बिल्कुल विचलित नहीं हुए। परन्तु जब वह जाने लगा तो भगवान के नेत्रों से भी आंसू के दो बून्द ढुलक पड़े। संगमक के बढ़ते हुए कदम रुक गए और उसने भगवान से पूछा कि- मैं जब आपको कष्ट दे रहा था तब आपके मन में दु:ख का संवेदन नहीं देखा। अब तो में जा रहा हूं, फिर आप के नेत्रों में आंसु की बून्दें क्यों ? भगवान ने कहा- हे संगम ! मुझे कष्टों का बिल्कुल दु:ख नहीं है। परन्तु, जब तुम्हें इन