________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1-9-2-7/8 (294-295) 275 II संस्कृत-छाया : शयनेषु तत्रोपसर्गा भीमा: आसन् अनेकरूपाश्च। संसर्पकाश्च ये प्राणाः अथवा ये पक्षिणः उपचरन्ति // 294 // अथ कुचरा उपचरंति, ग्रामरक्षकाश्च शक्तिहस्ताश्च / अथ ग्रामिका उपसर्गाः स्त्रिय एकाकिन: पुरुषाश्च // 295 // III सूत्रार्थ : उन शून्य स्थानों में जहां सर्पादि विषैले जन्तु एवं गृध्रादि मांसाहारी पक्षी रहते थे, उन्होने भगवान महावीर को अनेक कष्ट दिए। इसके अतिरिक्त चोर, सशस्त्र कोतवाल, ग्रामीण मुग्ध मनुष्य तथा विषयोन्मत्त स्त्रियों एवं दुष्ट पुरुषों के द्वारा भी एकाकी विचरण करने वाले भगवान महावीर को अनेक उपसर्ग प्राप्त हुए। IV टीका-अनुवाद : ____ जहां उत्कटुकासन याने उभडक पगे बैठना इत्यादि शय्या याने आश्रय स्थान में प्रभुजी ठहरतें थे, तब जो कोइ अनेक प्रकार के भयानक. उपसर्ग (अनुकूल या प्रतिकूल उपसर्ग) होतें थे.. या शीत, उष्ण आदि परीषह उपस्थित होते थे अथवा शून्यगृहादि में सर्प, नेउले इत्यादि क्षुद्रजंतुओं का उपद्रव होता था, अथवा श्मशानादि वसति में गीध आदि पक्षी प्रभुजी के शरीर में से मांस आदि खातें थे तब भी परमात्मा अपने धर्मध्यान से विचलित नहि होतें .... - तथा कभी कुत्सितचर याने चौर या परदारागमन करनेवाले दुष्ट लोग, शून्यगृहादि वसति में कायोत्सर्गध्यान करते हुए प्रभुजी को उपसर्ग करे... या तो गांव या नगर के तीन रास्ते या चार रास्ते वाले चौक में काउस्सग्ग ध्यान करते हुए प्रभुजी को कोटपालादि ग्रामरक्षक लोग छुरी, त्रिशूल एवं भाले आदि से ताडन करे... या तो कोइक स्त्री प्रभुजी के रूप-सौभाग्यादि गुणों को देखकर कामातुरता से आलिंगनादि स्वरूप अनुकूल उपसर्ग करे, या कोइ पुरुष द्वेषभावसे प्रतिकूल उपसर्ग करे, तब भी परमात्मा अपने धर्मध्यान से विचलित नहि होतें थे... V सूत्रसार : प्रस्तुत गाथाओं में बताया गया है कि- भगवान महावीर को साधना काल में अनेक कष्ट उत्पन्न हुए। भगवान महावीर प्राय: शून्य मकानों, जंगलों एवं श्मशानों में विचरते रहे हैं। शून्य घरों में सर्प, नेवले आदि हिंसक जन्तुओं का निवास रहता ही है। अत: वे भगवान