________________ 276 1 - 9 - 2 - 9 (296) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन को डंक मारते, काटते और इसी तरह श्मशानों में गधादि पक्षी उन पर चोंच मारते थे। इसके अतिरिक्त चोर-डाकू एवं धर्म-द्वेषी व्यक्तियों तथा व्यभिचारी पुरुषों एवं भगवान के सौंदर्य पर मुग्ध हुई कामातुर स्त्रियों ने भगवान को अनेक तरह के कष्ट दिए। फिर भी भगवान अपने ध्यान से विचलित नहीं हुए। साधना में स्थित साधक अपने शरीर एवं शरीर संबन्धी सुख दुःख को भूल जाता है। ध्यानस्थ अवस्था में उसका चिन्तन आत्मा की ओर लगा रहता है, अतः क्षुद्र जन्तुओं द्वारा दिए जाने वाले कष्ट को वह अनुभव नहीं करता। साधक के लिए बताया गया है किध्यान के समय यदि कोई जन्तु काट खाए तो उसे उस समय अपनी साधना से विचलित नहीं होना चाहिए। साधक को उत्पन्न होने वाले कष्ट को समभाव पूर्वक सहन करना चाहिए। क्योंकि- इससे केवल शरीर को कष्ट पहुंचता है और यदि कोई मनुष्य शरीर का ही विनाश करने लगे तब भी यही सोचना चाहिए कि- ये मेरे शरीर का नाश कर रहे हैं, परन्तु मेरी आत्मा शरीर से भिन्न है, अविनाशी है उसका नाश करने में कोई समर्थ नहीं है। इस तरह आत्मा का चिन्तन करते हुए भगवान सभी कष्टों को समभाव पूर्वक सहते हुए कर्मों का नाश करने लगे। ..हिंसक पशु-पक्षी एवं अधार्मिक व्यक्ति भी एकान्त स्थान पाकर प्रभुजी को कष्ट पहुंचाते ओर कुछ कामुक स्त्रिएं भी एकान्त स्थान पाकर प्रभुजी से कामक्रीडा की याचना करतीं। भगवान उनकी प्रार्थना का स्वीकार नहि करते तब वे उन्हें विभिन्न तरह के कष्ट देतीं। इस तरह प्रभुजी को अनेक अनुकूल एवं प्रतिकूल कष्ट आए। ऐसे घोर कष्टों को सहन करना साधारण व्यक्ति के सामर्थ्य से बाहर है। प्रतिकूल उपसर्गों की अपेक्षा अनुकूल उपसर्गों को सहन करना अत्यधिक कठिन है। परन्तु, भगवान महावीर समभाव से उन सब कष्टों पर विजय पाते रहे। इस विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... I सूत्र // 9 // // 296 // 1-9-2-9 इहलोइयाइं परलोइयाइं भीमाई अणेगरूवाई। अवि सुब्भिदुब्भि गन्धाइं सद्दाइं अणेगरूवाई // 296 // // संस्कृत-छाया : ऐहलौकिकान् पारलौकिकान् भीमान् अनेकरूपान्। अपि सुरभिदुरभि गन्धान्, शब्दान् अनेकरूपान् // 296 //