________________ 254 // 1 - 9 - 1 - 16 (280) प्र . श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन है। संसार परिभ्रमण का मूल कारण भाव उपधि है, भाव उपधि का नाश होने पर द्रव्य उपधि अर्थात् का नाश सुगमता से हो जाता है। इसलिए सर्वज्ञ पुरुष पहले भाव उपधि-राग-द्वेष के हेतुभूत घातिकर्मो का नाश करके वीतराग बनते हैं और उसके बाद द्रव्य उपधि के हेतुभूत अघातिकर्मो का क्षय करके सिद्ध पद को प्राप्त करते हैं / इसी विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... I सूत्र // 6 // // 280 // 1-9-1-16 दुविहं समिच्च मेहावी, किरियमक्खायऽणेलिसं नाणी / आयाण सोयमइ-वायसोयं, जोगं च सव्वसो णच्चा // 280 // II संस्कृत-छाया : द्विविधं समेत्य मेधावी, क्रियामाख्यातमनीदृशं ज्ञानी। आदानं स्त्रोतः अतिपातस्त्रोतः योगं च सर्वशः ज्ञात्वा // 280 // III सूत्रार्थ : मेधावी ज्ञानी भगवान ने ईर्यापथिक और साम्परायिक क्रिया कर्मबंध के कारण है, ऐसा जानकर अनुपम और कर्मो का नाश करने वाले संयमानुष्ठान रूप पंचाचार का निर्देश कीया है / तथा कर्मो के आने के स्त्रोत जैसे कि- प्राणातियातादि आश्रव एवं मन-वचन काया के अशुभ योग को कर्म बन्धन का कारण रूप जानकर संयमानुष्ठान का प्रतिपादन किया है। IV टीका-अनुवाद : क्रिया के दो प्रकार हैं, १-ईर्याप्रत्यय कर्म तथा 2- सांपरायिक कर्म इन दोनों प्रकार के कर्मो को जानकर मेधावी साधु श्रमण भगवान् श्री महावीरस्वामीजी ने उन क्रियाओं का विच्छेद करनेवाली संयमानुष्ठान स्वरूप पंचाचार की अतुलक्रिया दीखाइ है... केवलज्ञानी परमात्मा ने कहा है, कि-दुर्दात इंद्रियगण हि कर्मबंध के कारण होने से आदान है, और यह आदान हि स्त्रोत स्वरूप आश्रव द्वार है, तथा जीवों के प्राणों का अतिपात याने विनाश अर्थात् हिंसा भी आश्रव है... तथैव मृषावाद अदत्तादान मैथुन एवं परिग्रह भी आश्रव है... तथा मन, वचन एवं काया के अशुभ योग भी सर्व प्रकार से कर्मबंध के कारण स्वरूप आश्रव है, अतः इन आश्रवों के निरोध के लिये संवर स्वरूप पंचाचार याने संयमानुष्ठान का उपदेश दीया है...