Book Title: Acharang Sutram Part 03
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
View full book text
________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका // 1-9 - 1 - 20(284) // 259 V. सूत्रसार : भगवान महावीर ने अपने साधना काल में न तो किसी भी व्यक्ति के पात्र में भोजन किया और दूसरे व्यक्ति के वस्त्र का उपयोग भी नहि किया। यह हम देख चुके हैं कि- भगवान ने दीक्षा लेते समय केवल एक देवदुष्य वस्त्र के अतिरिक्त कोई उपकरण का स्वीकार नहीं किया था और वह देवदूष्य वस्त्र भी 13 महीने के बाद उनके कन्धे पर से गिर गया। और जब तक वह देवदूष्य-वस्त्र उनके पास रहा, तब तक भी उन्होंने शीत आदि निवारण करने के लिए उसका उपयोग नहीं किया। आगम से यह बात भी स्पष्ट है कि- वे अकेले ही दीक्षित हुए थे और संयम साधना काल में भी अकेले ही रहे थे। बीच में कुछ काल के लिए गोशालक उनके साथ अवश्य रहा था। परन्तु, परमात्मा ने गोशाले को साथ में रहने की संमति नहि दी थी... ऐसी स्थिति में किसी अन्य साधु के वस्त्र आदि स्वीकार करने या न करने का प्रश्न ही पैदा नहीं होता। . इससे स्पष्ट होता है कि- भगवान ने अपने साधना काल में न किसी गृहस्थ के पात्र में भोजन किया और सर्दी के मौसम में किसी गृहस्थ के वस्त्र का भी नहि स्वीकार किया। यद्यपि अन्य मत के साधु-संन्यासी गृहस्थ के बर्तन में भोजन कर लेतें है एवं गृहस्थ के वस्त्रों को भी अपने उपयोग में ले लेते हैं। परन्तु जैन साधु आज भी अपने एवं अपने से सम्बन्धित साधुओं के वस्त्र-पात्र के अतिरिक्त अन्य किसी के वस्त्र पात्र का स्वीकार नहीं करते हैं। भगवान ने भिक्षा के लिए जाते समय किसी भी व्यक्ति का सहारा नहीं लिया, वे सदा-मान-अपमान को छोडकर निर्दोष भिक्षा के लिए यथाकाल गृहस्थों के घर जाते थे। वे किसी दानशाला या महाभोजनशाला के सहारे भी अपना जीवन निर्वाह नहीं करते थे। क्योंकिइससे कई दीन-हीन व्यक्तियों को अन्तराय होता है और वहां आहार भी निर्दोष नहीं मिलता है। इस लिए वे अदीनमन होकर भिक्षा के लिए गृहस्थ के घर जाते और जैसा भी निर्दोष आहार उपलब्ध होता, वही स्वीकार करके अपनी संयम साधना में संलग्न रहते थे। उनकी साधना के सम्बन्ध में और उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... सूत्र // 20 // // 284 // 1-9-1-20 मायण्णे असणपाणस्स नाणुगिद्धे रसेसु अपडिन्ने। अच्छिंपि नो पमज्जिज्जा, नोवि य कंडूयए मुणी गायं // 284 //