Book Title: Acharang Sutram Part 03
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 卐१ - 9 - 1 - 23 (287) // 263 - II - संस्कृत-छाया : शिशिरे अध्वप्रतिपन्ने, तद् व्युत्सृज्य वस्त्रमनगारः। प्रसार्य बाहू पराक्रमते, नो अवलम्ब्य स्कन्धे (तिष्ठति) // 286 // III सूत्रार्थ : . शीतकाल में मार्ग में चलते हुए भगवान इन्द्र प्रदत्त वस्त्र त्याग के बाद दोनों भुजायें फैला कर चलते थे किन्तु शीत से सन्तप्त होकर अर्थात् शीत के भय से भुजाओं का संकोच नहीं करते थे तथा हाथ कंधे में लगाकर खडे नहि रहते थे... IV टीका-अनुवाद : ग्रामानुग्राम विहार करते करते जब शिशिर ऋतु काल आवे तब परमात्मा देवदूष्यवस्त्र का त्याग कर के बाहु (हाथ) फैलाकर कायोत्सग-ध्यान में उद्यम करतें हैं... कडकडती ठंड में शीत की पीडा से परमात्मा कभी भी शरीर के अंगोपांगों का संकोच नहि करतें, तथा हाथ को खंधे पे रखकर शीत को दूर करने का प्रयत्न नहि करतें... किंतु समभाव से शीतपरीषह को सहन करतें हैं... .. V सूत्रसार : भगवान महावीर की साधना विशिष्ट साधना थी। भगवान ने अपने साधना काल में अपवाद को स्थान ही नहीं दिया है। वे परीषहों पर सदा विजय पाते रहे, सर्दी के समय शीत के परीषह से घबराकर न तो कभी उन्होंने वस्त्र का उपयोग किया और न कभी शरीर को या हाथों को संकोच कर रखा। यद्यपि दीक्षा स्वीकार करने के पश्चात् 13 महीने तक उनके कन्धे पर देव दूष्य वस्त्र पड़ा रहा। फिर भी उन्होंने उससे शीत निवारण करने का प्रयत्न नहीं किया। वे दोनों हाथों को फैला कर चलते थे और दोनों हाथों को फैला कर ही खड़े होते थे। न चलते समय उन्होंने कभी हाथों का संकोच कीया और न कंधे पर हाथ रखा। वे सदा अपनी प्रतिज्ञा पर दृढ़ रहे और साधना में उत्पन्न होने वाले सभी परीषहों को समभाव पूर्वक सहते रहे। इससे स्पष्ट होता है कि- उनका अपने योगों पर पूरा अधिकार था। प्रस्तुत उद्देशक का उपसंहार करते हुए सूत्रकार महर्षि अंतिम सूत्र कहते हैं... सूत्र // 23 // // 287 // 1-9-1-23 एस विहि अणुक्कन्तो माहणेण मइमया। बहुसो अपडिन्नेण भगवया एवं रियंति त्तिबेमि // 287 //