________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 卐१-९-२-४(२९१)॥ 271 % यत्र-तत्र-सर्वत्र सुलभ हो ही जाती है। उपरोक्त सभी स्थान एकान्त एवं निर्दोष होने के कारण संयम साधना के लिए बहुत उपयुक्त माने गए हैं। उस युग के साधकों की साधना में भी परस्पर अन्तर था और आज के युग की साधना में भी अन्तर रहा हुआ है। इस लिए साधक को व्यवहार शुद्धि के लिए निर्दोष स्थान में ठहरना चाहिए। इसी वृत्ति का उपदेश देने के लिए समस्त विकारों एवं परीषहों पर विजय पाने में समर्थ भगवान महावीर भी चित्त को समाधि देने वाले एवं आत्म-चिन्तन में प्रगति देने वाले स्थानों में ठहरे। भगवान का आचार हमारे लिए जीवित शास्त्र है, जो हमारी साधना में स्फूर्ति एवं तेजस्विता लाने वाला है। यहां एक प्रश्न हो सकता है कि- भगवान महावीर का छद्मस्थ काल कीतना है ? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... I सूत्र // 4 // // 291 // 1-9-2-4 एएहिं मुणी सयणेहिं समणो आसि पतेरसवासे। राइं दिवंपि जयमाणे अपमत्ते समाहिए झाइ // 291 // // संस्कृत-छाया : एतेषु मुनिः शयनेषु श्रमणः आसीत् प्रत्रयोदशवर्षम् / रात्रिं दिवापि यतमानः, अप्रमत्तः समाहितः ध्यायति // 291 // III सूत्रार्थ : श्रमण भगवान महावीर इन पूर्वोक्त स्थानो में अप्रमत्तभाव से तप साधना कहते हुए 12 वर्ष, 6 महीने और 15 दिन तक निद्रा आदि प्रमादों से रहित होकर समाधि पूर्वक धर्म एवं शुक्ल ध्यान में संलग्न रहे। IV टीका-अनुवाद : उपरोक्त स्थानों में, ऋतुबद्ध काल हो या वर्षाकाल, सर्वदा निश्चलमनवाले परमात्मा श्रमण भगवान् महावीर स्वामीजी, बारह वर्ष से अधिक समय पर्यंत रात-दिन संयमानुष्ठान में उद्यम करते हुए, एवं निद्रादि प्रमाद रहित समाधि में रहे हुए धर्मध्यान या शुक्लध्यान में लीन रहते थे..