Book Title: Acharang Sutram Part 03
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
View full book text
________________ 252 // 1- 9 - 1 - 15 (279) // श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन याने गणवेष को धारण कर के अनेक बार अनेक प्रकार के नृत्य कीया है... अर्थात् कर्मपरिणाम नामक महाराजा के आदेश से सभी जीवों ने विभिन्न प्रकार के देव, मनुष्य, तिर्यंच एवं नरक के पात्र का. नाट्य कर्म कीया है... V सूत्रसार : दुनिया में प्रत्येक प्राणी अपने कतकर्म के अनुसार विभिन्न योनि को प्राप्त करता है। स्थावर काय में स्थित जीव अनन्त पुण्य का संचय करके त्रस काय में जन्म ले लेते हैं और पाप कर्म के द्वारा त्रस जीव स्थावर योनि में उत्पन्न हो जाते है / इसी तरह मनुष्य तिर्यञ्च, नरक, एवं देव-जीव, मनुष्य आदि किसी भी गति में उदयागत कर्मानुसार जन्म धारण कर सकता है / कुछ लोग यह मानते हैं कि- जो व्यक्ति जैसा होता है, उसी रूप में जन्म लेता है। जैसे स्त्री सदा स्त्री के रूप में ही रहती है और पुरुष सदा पुरुष के लिंग में ही जन्म लेता है / परन्त. यह मान्यता कर्म सिद्धान्त एवं अनुभव के आधार पर सत्य सिद्ध नहीं होती। यदि लैंगिक रूप कभी बदलता ही नहीं या उसका अस्तित्व कभी समाप्त ही नहीं होता, तो फिर ये समस्त कर्म निष्फल माने जाएंगे और यह हम प्रत्यक्ष हि देखते हैं कि- कर्म कभी निष्फल नहीं जाते। अतः हम कहते हैं कि- संसार परिभ्रमण में कभी भी एकरूपता नही रह सकती / जैसे कि- वर्तमानकालीन पुरुष जीव कर्मानुसार कभी स्त्री एवं नपुंसक के लिंग में जन्म धारण कर सकता है। और वर्तमानकालीन स्त्री जीव भी नपुंसक और पुरुष के लिंग में जन्म ले सकते हैं किंतु जब सकल कर्मोका क्षय होता है जब कोइभी जीव अलिंग अर्थात् सिद्ध स्वरूप को भी प्राप्त कर सकते है / जब व्यक्ति अपने ज्ञान एवं तप के द्वारा समस्त कर्मो का नाश कर देता है; तब वह जीवात्मा जन्म मरण के बन्धनों से सर्वथा मुक्त हो जाता है / इससे यह स्पष्ट होता है कि- जब तक आत्मा में अज्ञान एवं राग-द्वेष हैं तब तक वह कर्मो का बन्ध करती है और उदयागत कर्मानुसार संसार सागर में परिभ्रमण करती रहती है। अतः 84,00,000 योनियों में परिभ्रमण करने का मूल कारण कर्म है। इस विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... सूत्र // 15 // // 279 // 1-9-1-15 भगवं च एवमन्नेसिं, सोवहिए हु लुप्पइ बाले। कम्मं च सव्वसो नच्चा तं पडियाइक्खे पावगं भगवं // 279 //