________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका #1-9-1-6 (270) 237 संमिति एवं गुप्ति से युक्त होती है / भगवान महावीर भी समिति-गुप्ति से युक्त थे। वे जब भी चलते थे तब ईर्यासमिति के साथ चलते थे। इससे रास्ते में विद्यमान किसी भी जीव की विराधना नहीं होती थी। वे रास्ते में आने वाले प्रत्येक जीव-जंतुओ को बचाकर अपना मार्ग तय कर लेते थे। यदि दृष्टि में एकाग्रता न हो तो रास्ते में आने वाले छोटे-बडे जंतुओं की हिंसा से बच सकना कठिन है। इस लिए यह नियम बना दिया गया है कि- साधक को ईर्यासमिति से विवेक पूर्वक चलना चाहिए। भगवान महावीर ने इसका स्वयं आचरण करके बताया कि- साधक को किस प्रकार चलना चाहिए। भगवान महावीर केवल उपदेशक हि नहीं थे किंतु उन्होंने उपदेश देने से पहले स्वयं आचरण करके साधना के मार्ग को बनाया है... भगवान महावीर को पथ से गुजरते हुए देखकर बहुत से बालक डर कर कोलाहल मचाते और अन्य बालकों को बुलाकर भगवान पर धूल फेंकते और हो-हल्ला मचाते। इससे भगवान का कुछ नहीं बिगडता। वे उनकी ओर दृष्टि उठाकर भी नहीं देखते परंतु वे समभाव पूर्वक अपने पथ पर विचरते रहते। इस तरह सभी परीषहों को सहते हुए भगवान ईर्यासमिति के द्वारा मार्ग को देखते हुए विचरते थे। पहले महाव्रत-अहिंसा का वर्णन करके अब सूत्रकार चौथे महाव्रत के विषय में आगे के सूत्र से कहते हैं... I सूत्र // 6 // // 270 // 1-9-1-6 सयणेहिं वितिमिस्सेहिं इथिओ तत्थ से परिन्नाय / सागारियं न सेवेइ य, से सयं पवेसिया झाइ // 270 // संस्कृत-छाया : शयनेषु व्यतिमिश्रेषु, स्त्रियः तत्र सः परिज्ञाय। सागारिकं न सेवेत, स स्वयं प्रवेश्य ध्यायति // 270 // III सूत्रार्थ : जब गृहस्थों एवं अन्यमत के सन्तों से मिश्रित वस्तियों में ठहरे हुए भगवान को देखकर वहां रही हुइ महिलाएं यदि विषय भोग के लिए प्रार्थना करती तब भगवान् मैथुन के विषम परिणाम को जानकर उसका सेवन नहीं करते थे। वे स्वयं अपनी आत्मा से वैराग्य मार्ग में प्रवेश करके सदा धर्म एवं शुक्ल ध्यान में हि संलग्न रहते थे।