Book Title: Acharang Sutram Part 03
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ 2401 - 9 -1 - 7 (271) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन मेरे से अल्प परिग्रही कैसे हैं ?' को दूर करने के लिए उसे एक तैल का कटौरा भरकर दिया और सुसज्जित बाजार का चक्कर लगाकर आने का आदेश दिया। साथ में यह भी सूचित कर दिया कि इस कटोरे से एक भी बन्द नीचे नही गिरनी चाहिए। यदि तैल का एक बन्द भी गिर गया तो यह साथ में जाने वाले सिपाही ही तुम्हारे मस्तक को धड़ से अलग कर देंगे। वह पूरे बाजार में घूम आया। बाजार खूब सजाया हुआ था। स्थान-स्थान पर नृत्यगान हो रहे थे। परन्तु, वह जैसा गया था वैसा ही वापिस लौट आया। जब भरत ने पूछा कि- तुमने बाजार में क्या देखा ? तुम्हें कौन सा नृत्य या गायन पसन्द आया ? तो उसने कहा महाराज मैं ने बाजार में कुछ नहीं देखा और कुछ नहीं सुना। यह नितान्त सत्य है किमेरी आंखे खुली थी और कानों के द्वार भी खुले थे। नृत्य एवं गायन की ध्वनि कानों में पड़ती थी और दृष्टि पदार्थों पर गिरती थी, परन्तु मेरा मन, मेरी चित्तवृत्ति तैल के कटोरे में ही केन्द्रित थी। इसलिए उस ध्वनि को मेरा मन पकड़ नहीं पाया। जैसे समुद्र की लहरें किनारे से टकराकर पुन: समुद्र में विलीन हो जाती हैं, उसी तरह वह ध्वनि कर्ण कुहरों से टकराकर पुनः लोक में फैल जाती थी। भरत ने उसे समझाया कि- तेरी और मेरी चित्तवृत्ति में यही अंतर है। तुम्हारा मन भय के कारण अपने आप में केन्द्रित था। परन्तु मेरा मन विना किसी भय एवं आकांक्षा के अपनी आत्मा में केन्द्रित है। मैं संसार में रहते हुए भी संसार से अलग अपनी आत्मा में स्थिर होने के लिए प्रयत्नशील हूं, सदा आत्मा को सामने रख कर ही कार्य करता हूं। इसलिए भगवान ऋषभदेव ने मुझे अल्प परिग्रही बताया है। कहने का तात्पर्य यह है कि- जब इन्द्रियों के साथ मन, चित्तवृत्ति या परिणाम की धारा जुडी हुई होती है, तभी हम किसी विषय को ग्रहण कर सकते हैं। परन्तु, जब मन आत्मा के साथ संलग्न होता है, तो हजारों विषयों सामने आने पर भी हमें उनकी अनुभूति नहीं होती। आत्म-चिन्तन हि मन एवं परिणामों की धारा को विषय चिन्तन से रोकने के लिए महत्त्वपूर्ण साधन है। भगवान महावीर का मन अपनी आत्मा में इतना संलग्न था, कि- गृहस्थों की बातों का उन पर कोई असर नहीं होता था। वे उनके किसी भी प्रश्न का उत्तर-प्रत्युत्तर नहीं देते थे। इससे स्पष्ट होता है कि- उनका चिन्तन जंगल एवं शहर में समान रूप से चलता था। किसी भी तरह के बाह्य वातावरण का उनके मन पर असर नहीं होता था। इस तरह वे गृहस्थों के मध्य में रहते हुए भी मौन रहते थे और सदा सर्वदा आत्म चिन्तन में संलग्न रहते थे। भगवान की सहिष्णुता का उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं...