________________ 244 1 -9 - 1 - 10(274) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन II संस्कृत-छाया : ग्रथितः मिथ: कथासु समये ज्ञातपुत्रः विशोकः अद्राक्षीत् / एतानि सः उरालानि, गच्छति ज्ञातपुत्रः अशरणाय // 274 // III सूत्रार्थ : ___ जहां कहीं लोग शृंगार रस से युक्त कथाएं करते थे या महिलाएं परस्पर कामोत्पादक कथाओं में प्रवृत्त होतीं, तो उन्हें देखकर भगवान महावीर के मन में हर्ष एवं शोक उत्पन्न नहीं होता था। और अनुकूल एवं प्रतिकूल कैसा भी उत्कृष्ट परीषह उत्पन्न हो फिर भी वे दीनभाव से या दुःखित होकर किसी की शरण स्वीकार नहीं करते थे। परन्तु उस समय समभावपूर्वक संयम साधना में संलग्न रहते थे। IV टीका-अनुवाद : स्त्रीकथा या भोजन (भक्त) कथा आदि स्वरूप विकथा के वार्तालाप में मग्न दोपांच मनुष्यों या महिलाओं को देखकर, भगवान् महावीरस्वामजी न तो अनुराग करतें, और न तो अप्रीति स्वरूप द्वेष करतें, किंतु मध्यस्थ भाव में हि रहकर तटस्थ रहते थे... तथा मनोज्ञ पदार्थों को देखकर भी परमात्मा अनुराग नहि करतें, किंतु मध्यस्थ भाव में स्थिर रहते थे... ऐसे और भी अन्य अनुकूल या प्रतिकूल उपसर्गों के प्रसंग में तथा परीषहों की परिस्थिति में श्रमण भगवान् महावीर स्वामीजी न तो राग करतें, और न तो द्वेष करतें, किंतु सर्वत्र मध्यस्थवृत्ति में रहते हुए संयमानुष्ठान में पराक्रम करते थे... , ज्ञातपुत्र याने क्षत्रियपुत्र श्री महावीर स्वामीजी अशरण याने संयम के लिये हि सदा उद्यमवंत रहते थे... यहां शरण शब्द का अर्थ है घर... और अशरण शब्द का अर्थ है संयम... यहां शिष्य प्रश्न करता है कि- हे गुरूजी ! परमात्मा श्रमण भगवान् महावीरस्वामीजी तो अतुलबल पराक्रमवाले हैं, तो फिर आप ऐसा क्यों कहतें है, कि- परमात्मा प्रव्रज्या ग्रहण करने के बाद सदा संयम में पराक्रम करतें हैं... इत्यादि... इस प्रश्न के उत्तर में गुरुजी कहतें हैं कि- हे विनेय ! यहां पराक्रम का अर्थ है, पुरूषार्थ करना, सावधान रहना, और उद्यमशील रहना... इत्यादि... यद्यपि श्रमण भगवान् महावीरस्वामीजी ने प्रव्रज्या ग्रहण नहि की थी उस अंतिम दो वर्ष के समय में भी परमात्मा अचित्त प्रासुक आहारादि का उपयोग करते थे, और निरवद्य जीवन के भाववाले थे... इत्यादि...