________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 8 - 7 - 4 (239) // 177 तत्थ विअंतिकारए, इच्चेयं विमोहाययणं हियं सुहं खमं निस्सेसं आणुगामिय त्तिबेमि // 239 // // संस्कृत-छाया : यस्य च भिक्षोः एवं भवति - अथ ग्लायामि खलु अहं अस्मिन् समये इदं शरीरं आनुपूर्येण परिवोढुम्, स: आनुपूर्येण आहारं संवर्तयेत्, संवर्त्य कषायान् प्रतनुकान् कृत्वा समाहितार्चः फलकावस्थायी उत्थाय भिक्षुः अभिनिर्वृत्तार्चः अनुप्रविश्य ग्रामं वा नगरं वा यावत् राजधानी वा तृणानि याचेत यावत् संस्तीर्यात्। / अस्मिन्नपि समये कायं च योगं च ईयर्यां च प्रत्याचक्षीत, तत् सत्यं सत्यवादी ओजः तीर्णः छिन्नकथंकथ: आतीतार्थ: अनातीत: व्यक्त्वा च भिदुरं कायं संविधूय विरूपरूपान् परीषहोपसर्गान् अस्मिन् विश्रम्भणतया भैरवं अनुचीर्णः, तत्राऽपि तस्य कालपर्यायः, स: अपि तत्र व्यन्तिकारकः। इत्येतत् विमोहायतनं हितं सुखं क्षम निःश्रेयसं आनुगामिकं इति ब्रवीमि // 239 // III सूत्रार्थ : __ जिस भिक्षु का यह अभिप्राय हो कि- मैं ग्लान हुँ रोगाक्रान्त हूं। अतः मैं इस समय अनुक्रम से इस शरीर को संयम साधना में नहीं लगा सकता हूं तब वह भिक्षु अनुक्रम से आहार का संक्षेप करे और कषायों को स्वल्प बनाए। ऐसा करके वह समाधियुक्त मुनि फलक की भान्ति सहनशील होकर मृत्यु के लिए उद्यत होकर तथा शरीर के सन्ताप से रहित होकर ग्राम, नगर यावत् राजधानी में प्रवेश करके, तृणों की याचना कर के गुफादि निर्दोष स्थान में जाकर तणादि बिछावे। इस स्थान पर भी वह साध काय के व्यापार. वाचन के व्यापार तथा मन के अशुभ संकल्पों का प्रत्याख्यान करे। यह पादोपगमन अनशन करनेवाला साधु सत्यवादी है राग और द्वेष से रहित होकर संसार समुद्र का पार होने वाला है तथा विकथाओं का त्यागी है, पदार्थो के यथार्थ स्वरूप का ज्ञाता है। संसार का अंत करने वाला है नाशवान शरीर को त्याग करने का इच्छुक है। विभिन्न प्रकार के परीषहोपसर्गों को सहन करने में समर्थ है। जैनागम में आस्था रखने वाला और दुष्कर प्रतिज्ञा का परिपालक है ! उसका कालपर्याय कर्मों का नाशक है। यह पादपोपगमन मरण मोह से रहित है। अत: यह हितकारी है, सुखकारी है, क्षेमकारी है, कल्याणकारी है अतः यह समाधिभाव भवान्तर में साथ जानेवाला है। इस प्रकार मैं तुम्हें कहता हूं। IV टीका-अनुवाद : जिस साधु को ऐसा अभिप्राय याने विचार आवे कि- अब मैं संयमयात्रा के उपयोगी