Book Title: Acharang Sutram Part 03
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ 2281 - 9 - 1 - 1 (265) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन __हेमंत ऋतु में मागसर वदी दशमी (गुजरात की दृष्टि से कार्तिक वदी दशमी) के दिन प्रव्रज्या ग्रहण करने के बाद तुरंत अपराह्नकाल में क्षत्रियकुंड गांव से विहार कीया... और दिवस जब एक मुहूर्त शेष रहा तब प्रभुजी करि नाम के गांव में पधारे... यहां से लेकर केवलज्ञान की प्राप्ति पर्यंत विभिन्न प्रकार के अभिग्रह से युक्त श्रमण भगवान् महावीरस्वामीजी ने घोरातिघोर परीषह एवं उपसर्गों को सहन करते हुए एवं महासत्त्वगुण से म्लेच्छ लोगों को भी शांत करते हुए बारह वर्ष से अधिक काल पर्यंत छद्मस्थावस्था में मौनव्रत के साथ तपश्चर्या की.. जब सर्वविरति सामायिक की प्रतिज्ञा परमात्माने ग्रहण की तब इंद्र ने प्रभुजी के खंधे के उपर देवदुष्य रखा था, उस वख्त परमात्मा ने नि:संग अभिप्राय से हि देखा कि- अन्य श्रमण-साधुजन धर्मोपकरण के बिना श्रमणधर्म का अनुष्ठान नहि कर शकेंगे, इस अपेक्षा से मध्यस्थभाव से हि परमात्मा ने उस देवदूष्य-वस्त्र को अपने खंघे पर हि रहने दीया... परमात्मा को उस देवदूष्य-वस्त्र के उपयोग की इच्छा नहि थी, किंतु तीर्थंकारो का कल्प एवं स्थविरकल्य के मार्ग का मात्र सूचन हि था... . V सूत्रसार : आचाराङ्ग सूत्र का प्रारंभ करते समय आर्य सुधर्मास्वामी ने यह प्रतिज्ञा की थी किहे जम्बु ! मैं तुम्हें वही बात कह रहा हूं, जो मैंने श्रमण भगवान महावीर से सुना है। इसके पश्चात् आठ अध्ययनों में इस प्रतिज्ञा को फिर से नहीं दुहराया गया परन्तु नवमें अध्ययन का प्रारम्भ करते हुए इस प्रतिज्ञा को फिर से उल्लेख किया गया है। इसका कारण यह है कि- आठ अध्ययन साध्वाचार से संबन्धित थे. इस लिए उनमें बार-बार उक्त प्रतिज्ञा को दोहराने की आवश्यकता नहीं थी। परन्तु प्रस्तुत अध्ययन भगवान महावीर की साधना से सम्बद्ध होने से यह शंका हो सकती है कि- सूत्रकार ने अपनी ओर से भगवान महावीर की स्तुति की है या उनकी विशेषता को बताने के लिए उक्त अध्ययन का कथन किया है। सूत्रकार के द्वारा आचाराङ्ग सूत्र के प्रारम्भ में की गई प्रतिज्ञा को पुनः दोहराने के बाद भी कुछ लोग प्रस्तुत अध्ययन को भगवान महावीर का गुणकीर्तन ही मानते हैं। उनका कथन है कि- यह भगवान महावीर का यथार्थ जीवन-वर्णन नहीं किन्तु गणधरों ने उनके गुणों का वर्णन किया है। इस तरह की शंकाओं का निराकरण करने के लिए सूत्रकार ने इस "अहासुयं” पद से प्रतिज्ञा सूत्र का फिर से उल्लेख किया है। सूत्रकार ने प्रस्तुत अध्ययन में यह स्पष्ट कर दिया है कि- भगवान महावीर के जीवन के सम्बन्ध में मैं अपनी ओर से कुछ नहीं कह रहा हूं। मैने भगवान महावीर से उनकी संयम