Book Title: Acharang Sutram Part 03
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 9 -1 - 1 (265) 227 श्रुतस्कंध - 1 अध्ययन - 9 उद्देशक - 1 // चर्या I सूत्र // 1 // // 265 // 1-9-1-1 अहासुयं वइस्सामि जहा से समणो भगवं उट्ठाए। संखाए तंसि हेमन्ते अहुणो पव्वइए रीइत्था // 265 // // संस्कृत-छाया : यथाश्रुतं वदिष्यामि, यथा सः श्रमण: भगवान् उत्थाय / संख्याय तस्मिन् हेमन्ते, अधुना प्रव्रजित: रीयते स्म // 265 // III सूत्रार्थ : आर्य सुर्धमास्वामी जम्बूस्वामी से कहते हैं कि- हे जम्बू ! मैंने जैसे श्रमण भगवान महावीर की विहार चर्या का श्रवण किया है वैसे ही मैं तुम्हें कहूंगा। जिस प्रकार श्रमण भगवान महावीर ने कर्मों के क्षय के लिये एवं तीर्थ की प्रवृत्ति के लिए संयम मार्ग में उद्यत होकर, उस हेमन्त काल में तत्काल ही दीक्षित होकर विहार किया था। IV. टीका-अनुवाद : . पंचम गणधर आर्य सुधर्मस्वामजी आपने विनीत अंतेवासी शिष्य जंबूस्वामीजी को जिज्ञासा की संतुष्टि के लिये कहते हैं कि- मैंने जो कुछ जैसा सुना है वह बात मैं उसी प्रकार से कहुंगा... अथवा हे जंबू ! मैं सूत्र के भावार्थ को यथासूत्र हि कहुंगा... वह इस प्रकार... श्रमण भगवान् श्री महावीरस्वामीजी श्रमण जीवन का स्वीकार कर के, सभी आभरणादि अलंकारों का त्याग कर के एवं पंचमुष्टि लोच कर के एवं इंद्र ने खभे पर रखे हुए एक देवदूष्य वस्त्र को धारण कर के उद्यतविहार के लिये ग्रामानुग्राम विहार करते हैं... परमात्मा श्री महावीरस्वामीजी ने सामायिक की प्रतिज्ञा की है, प्रभुजी को मनः पर्यवज्ञान प्रगट हुआ है, ऐसे वे परमात्मा ज्ञानावरणीयादि आठ कर्मो का क्षय करने के लिये एवं सकल जीवों के हितकारक तीर्थ की स्थापना करने के लिये पृथ्वीतल पे ग्रामानुग्राम विहार करतें हैं...