Book Title: Acharang Sutram Part 03
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan

Previous | Next

Page 258
________________ . श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 9 - 1 - 1 (265) 229 साधना के विषय में जैसा सुना है, वैसा ही तुम्हें बता कहा हूं, अर्थात् प्रस्तुत अध्ययन भगवान की स्तुति मात्र नहीं, किन्तु, भगवान महावीर की साधना का यथार्थ चित्र है सूत्रकृतांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के छठे अध्ययन में भगवान महावीर का गुण कीर्तन किया है और उस अध्ययन का नाम है- “वीर स्तुति' अध्ययन। यदि प्रस्तुत अध्ययन में गणधर भगवान ने स्तुति की होती तो वे सूत्रकृताङ्ग की तरह यहां भी उल्लेख करते। परन्तु उक्त अध्ययन में सूत्रकार ने अपनी ओर से कुछ नहीं कहा है। वे कहते हैं कि- जैसा भगवान महावीर ने अपनी संयम-साधना का वर्णन किया है, वही मैं तुम्हें सुनाता हूं। ___ भगवान महावीर का जन्म क्षत्रियकुण्ड नगर में हुआ था। महाराज सिद्धार्थ उनके पिता एवं महारानी त्रिशला उनकी माता थी। वे अपने किसी पूर्वभव में आबद्ध तीर्थंकर नामकर्म के कारण इस अवसर्पिणी काल के २४वें तीर्थंकर हुए। जन्म के समय ही वे मति, श्रुत एवं अवधि तीन ज्ञान से युक्त थे। वे शरीर से जितने सुन्दर थे, उससे भी अधिक उनका अंतर जीवन दया, करूणा, क्षमा, उदारता एवं वीरता आदि गुणों से परिपूर्ण था। उनका विवाह यशोदा नाम की राजकुमारी के साथ हुआ जिससे प्रियदर्शना नामक कन्या का जन्म हुआ, जिसका राजकुमार जमाली के साथ विवाह किया गया। आप संसार में रहते हुए भी संसार से अलिप्त रहते थे। आप अपनी गर्भ में की हुई प्रतिज्ञा के अनुसार माता-पिता के जीवित रहते उनकी सेवा में संलग्न रहे। उनके स्वर्गवास के पश्चात् आपने अपने ज्येष्ठ भ्राता नन्दीवर्द्धन के सामने दीक्षा लेने का विचार रखा। अभी माता-पिता का वियोग हुआ ही था और अब भाई वर्धमान के विरह की बात को एकदम वे सह नहीं सके। अत: बडे भाई नंदिवर्धन के अत्यधिक आग्रह के कारण आप दो वर्ष और गृहस्थवास में ठहर गए। और इन दो वर्षों में त्याग-निष्ठ जीवन बिताते रहे। फिर एक वर्ष अवशेष रहने पर उन्होंने प्रतिदिन 1 करोड 8 लाख सोनैयों का दीन-हीन तथा गरीब जनों को दान देना आरम्भ किया और एक वर्ष तक निरन्तर दान देते रहे। इस दान को “संवच्छरी-दान' कहा जाता है... . उसके पश्चात् मार्गशीर्ष कृष्णा दशमी के दिन, दिन के चतुर्थ प्रहर में भगवान ने गृहस्थ जीवन का त्याग करके साधु जीवन को स्वीकार किया। गृहस्थ जीवन के समस्त वस्त्राभूषण आदि को उतार कर एवं पंचमुष्टि लुंचन करके सामायिकसूत्र ‘करेमि भंते' के पाठ का उच्चारण करके समस्त सावद्य योगों से निवृत्त होकर साधना जीवन में प्रविष्ट हुए और साधना जीवन में प्रवेश करते ही उन्हें चौथा मन:पर्यवज्ञान उत्पन्न हो गया। उस समय इन्द्र ने उन्हें एक देवदूष्य वस्त्र प्रदान किया, जिसे स्वीकार करके भगवान महावीर ने वहां से कुमार ग्राम की ओर विहार कर दिया। और साढ़े बारह वर्ष से कुछ अधिक समय तक मौन साधना एवं

Loading...

Page Navigation
1 ... 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368