Book Title: Acharang Sutram Part 03
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ 1881 -8-8-8 (247) म श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन में संथारे के लिये योग्य भूमी को देखकर, अथवा अरण्य याने वन-उद्यानमें अर्थात् उपाश्रय के बाहार वन-उद्यान-गिरिगुफा आदि में जीव जंतु रहित निर्जीव भूमी की पडिलेहणा करके कालज्ञ साधु गांव-नगरादि से तृणादि की याचना करके लाये हुए तृणादि दर्भ का संथारा करे... V सूत्रसार : पूर्व के उद्देशक में अनशन करने के स्थान का जो वर्णन किया गया है, उसी को इस गाथा में दोहराया गया है। मृत्यु का समय निकट आने पर साधक जिस स्थान में ठहरा हुआ हो उस स्थान में या उससे बाहर जंगल में या अन्य स्थान में जहां उसे समाधि रहती है, वहां याचना करके निर्दोष तृण की शय्या बिछाकर उस पर अनशन व्रत स्वीकार करे। इसके साथ लघुनीति आदि का त्याग करने की भूमि का भी प्रतिलेखन कर ले। इस तरह निर्दोष भूमि पर निर्दोष तृण की शय्या बिछाकर जन्म और मरण की आकांक्षा रहित होकर अनशन व्रत को स्वीकार करे। तृण शय्या बिछाने के बाद मुनि को क्या करना चाहिए। इसका उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... सूत्र // 8 // // 247 // 1-8-8-8 ___ अणाहारो तुयट्टिज्जा पुठ्ठो तत्थऽहियासए / __णाइवेलं उवचरे माणुस्सेहिं वि पुट्ठवं // 247 // II संस्कृत-छाया : अनाहारः त्वग्-वर्त्तयेत् स्पृष्टः तत्र अध्यासयेत् / नाऽतिवेलं उपचरेत् मानुषैः अपि स्पृष्टवान् // 247 // III सूत्रार्थ : संस्तारक पर बैठा हुआ मुनि तीन व चार प्रकार के आहार का परित्याग करे। एवं यत्ना से संस्तारक शय्या पर शयन करे, और वहां होने वाले कष्टों को समभावपूर्वक सहन करे। अर्थात् मनुष्यों द्वारा स्पर्शित होने वाले अनुकूल या प्रतिकूल परीषहों की उपस्थिति होने पर संयम मर्यादा का उल्लंघन न करे एवं पुत्र एवं परिजन आदि के सम्बन्ध को याद कर आर्तध्यान भी न करे। IV टीका-अनुवाद : तृणादि दर्भ का संथारा करके साधु अपनी शक्ति-सामर्थ्य के अनुसार तिविहार या