Book Title: Acharang Sutram Part 03
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ 2201 - 9 - 0-0 श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन अनंतानुबंधि कषायों का संक्रमण करतें हैं... तथा आवलिकागत कर्म को भी स्तिबुक संक्रमण के द्वारा वेद्यमान अन्य कर्म प्रकृतिओं में संक्रमित करते हैं... इस प्रकार अनंतानुबंधि कषायों की विसंयोजना होती हैं... अब दर्शनत्रिक का उपशमन कहते हैं... मिथ्यादृष्टि जीव अथवा क्षायोपशमिक (वेदक) सम्यग्दृष्टि जीव मिथ्यात्वमोहनीय कर्म के दलिकों का उपशमन करते हैं तथा क्षायोपशमिक (वेदक) सम्यग्दृष्टि जीव सम्यक्त्व मोह एवं मिश्रमोह के दलिकों का उपशमन करतें हैं... ___ अब मिथ्यात्वमोह के कर्मदलिकों का उपशमन करते करते उन कर्मदलिकों में अंतर (आंतरूं-गाबडु) कर के प्रथम की लघु स्थिति का विपाक के द्वारा अनुभव करता हुआ वह जीव उपशांतमिथ्यात्व होकर उपशम सम्यग्दृष्टि बनता है... अब क्षायोपशमिक (वेदक) सम्यग्दृष्टि साधु उपशमश्रेणी को प्राप्त करता हुआ सर्व प्रथम अनंतानुबंधि कषायों की विसंयोजना कर के निम्नोक्त प्रकार से दर्शनत्रिक का उपशमन करता है... वह इस प्रकार- यथाप्रवृत्तिकरणादि पूर्वोक्त तीन करण कर के अंतरकरण करता हुआ वह साधु वेदक सम्यक्त्व की प्रथम स्थिति को अंतर्मुहूर्त काल प्रमाणवाली करता है, और दुसरी स्थिति को अवलिका मात्र काल प्रमाणवाली करता है... उस के बाद कुछ न्यून मुहूर्त प्रमाणवाली स्थिति को खंड खंड कर के बध्यमान कर्मप्रकृतिओं को स्थितिबंध प्रमाण काल के द्वारा उस कर्मदलिकों को सम्यक्त्वमोह की प्रथम स्थिति में प्रक्षेप करता हुआ वह साधु सम्यक्त्व मोह के बंध के अभाव में अंतर (आंतरूं-गाबडु) करता हुआ अंतर अवकाश कर चूका होता है... यहां मिथ्यात्वमोह के कर्मदलिक एवं मिश्रमोह के आवलिका-मात्र परिणाम वाले प्रथम स्थिति के कर्मदलिकों को सम्यक्त्व मोह की प्रथम स्थिति में स्तिबुकसंक्रमण के द्वारा संक्रमित करते हैं. और उस सम्यक्त्वमोह की प्रथम स्थिति भी क्षीण होने पर वह साधु उपशांतदर्शन त्रिकवाला होता है- अर्थात् उपशमसम्यक्त्व उपशांत दर्शन मोहवाला होता है... दर्शनत्रिक के उपशमन के बाद वह साधु चारित्रमोहनीय कर्म का उपशमन करता हुआ पूर्ववत् कारणत्रिक करता है... परंतु यहां यथाप्रवृत्तिकरण अप्रमत्त नाम के सातवे गुणस्थान में होता है, तथा दुसरा अपूर्वकरण आठवे गुणस्थान में होता है... यहां अपूर्वकरण नाम के आठवे गुणस्थान में वह साधु प्रथम समय में हि स्थितिघात, रसघात, गुणश्रेणी, गुणसंक्रम एवं अपूर्वस्थितिबंध यह पांच कार्य युगपत् करता है... वहां अपूर्वकरण के संख्येय मात्र प्रमाण काल बीतने पर निद्रा एवं प्रचला (निद्राद्विक) का बंध विच्छेद होता है, उसके बाद अनेक सहस्र स्थितिकंडक बीतने पर देवभव संबंधित नाम-कर्म की तीस