Book Title: Acharang Sutram Part 03
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 9 - 0 - 0 219 तथा तीसरा अनिवृत्तिकरण जहां विवक्षित अध्यवसाय में विद्यमान जीवों के परिणाम परस्पर विभिन्न नहि होतें, अर्थात् एक समान हि होते हैं वह है अनिवृत्तिकरण... जैसे कि- अनिवृत्तिकरण के प्रथम समय में प्रविष्ट सभी जीवों का परस्पर तुल्य परिणाम (अध्यवसाय) होता है... इसी प्रकार द्वितीय समयवाले जीवों का अध्यवसाय-परिणाम परस्पर समान हि होते हैं... इसी प्रकार तृतीयादि समयों में सर्वत्र परस्पर तुल्य परिणाम होता है... यहां भी पूर्वोक्त स्थितिघातादि पांच कार्य युगपत् प्रवर्तित होते हैं... इस कारण से यथाप्रवृत्तिकरणादि तीनों करण में यथोक्त क्रम से अनंतानुबंधी कषायों का उपशमन करतें हैं... उपशमन याने कर्मरज का चलित न होना... जिस प्रकार- धूली याने रजःकण को जल से आर्द्र करने के बाद द्रघण याने घण से टीपने से रजःकण ऐसी नितांत सज्जड जम जाती है कि- प्रचंड वायु के झंझावात में भी वह धूली उड नहि शकती, इसी प्रकार कर्मरजःकण का उपशमन होने पर अर्थात् अपूर्वकरण की विशुद्धि स्वरूप जल से आर्द्र होने के बाद अनिवृत्तिकरण स्वरूप द्रुघण से टीपने से उस कर्मरजःकण में अब उदय, उदीरणा, संक्रमण, निधत्ति और निकाचनादि करण नहि लगतें... यहां प्रथम समय में उपशांत कर्मदल थोडे होते हैं... और द्वितीयादि समयों में उत्तरोत्तर असंख्यगुण अधिक अधिक उपशांत होते होते अंतर्मुहूर्त काल समय में सभी अनंतानुबंधिकषायों का उपशमन होता है... इस प्रकार एक मत से अनंतानुबंधि कषायों का उपशमन कहा, ___ अन्य आचार्य तो अनंतानुबंधि-कषायों की विसंयोजना इस प्रकार कहते हैं किचारोंगतिवाले क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि जीव अनंतानुबंधि कषायों की विसंयोजना करते हैं, उन में अविरत सम्यग्दृष्टि नारक एवं देव तथा तिर्यंच पंचेद्रिय प्राणी अविरत सम्यग्दृष्टि एवं देशविरत, और गर्भज मनुष्य अविरतसम्यग्दृष्टि, देशविरत एवं सर्वविरत प्रमत्त और अप्रमत्त मुनी... यह सभी जीव यथासंभव विशोधि जन्य विवेक के परिणाम में परिणत होकर अनंतानुबंधि कषायों की विसंयोजना के लिये पूर्वोक्त यथाप्रवृत्ति आदि तीन करण होतें हैं... ___ इस करण त्रिक में प्रतिक्षण अनंतानुबंधि कषायों की स्थिति का अपवर्तन करते करते उन अनंतानुबंधि कषायों की पल्योपम के असंख्येय भाग प्रमाण स्थिति रहे तब तक अपवर्तन करते रहते हैं... __ अब अवशिष्ट पल्योपम के असंख्येय भाग प्रमाण उस अनंतानुबंधि कषायों को बध्यमान मोहनीय कर्म की प्रकृतिओं में प्रतिक्षण संक्रमण करते हैं... यह संक्रमण कार्य भी प्रथम समय में थोडा, और क्रमशः द्वितीयादि समयों में असंख्येयगुण अधिक अधिक होता है, इसी प्रकार अंतिम समय होते हि सर्वसंक्रमण करण के द्वारा आवलिकागत कर्मो को छोडकर शेष सभी