Book Title: Acharang Sutram Part 03
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan

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Page 251
________________ 222 // 1 - 9 - 0-0 // श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन में प्रवेश करता है... यह उपशांतमोह नाम के ग्यारहवे गुणस्थानक में वह साधु महात्मा जघन्य से एक समय एवं उत्कृष्ट से अंतर्मुहूर्त काल पर्यंत रहता है, उस के बाद या तो भवक्षय याने आयुष्य पूर्ण होने से, या तो अद्धाक्षय याने ग्यारहवे गुणस्थानक का काल पूर्ण होने पर, उस साधु महात्मा का प्रतिपात याने पडना होता है.... इस पतन की परिस्थिति में वह साधु महात्मा जिस प्रकार उत्तरोत्तर गुणस्थानकों में चढते समय बंधादि का विच्छेद करता था, उसी प्रकार पतन के समय पुनः बंधादि का प्रारंभ करता है... पडते पडते कोइ साधु महात्मा मिथ्यात्व नाम के प्रथम गुणस्थानक में भी पहुंचते हैं... तथा जो साधु महात्मा भवक्षय याने आयुष्य पूर्ण होने पर ग्यारहवे गुणस्थानक से पडता है, वह अनुत्तरविमान में देव होता है वहां प्रथम समय में हि संभवित सभी करण का प्रवर्तन होता है... कोइक साधु महात्मा एक हि भव में दो बार यह उपशमन कार्य करता है... इत्यादि... क्षपकश्रेणी... अब क्षपकश्रेणी का स्वरूप कहतें हैं... इस क्षपकश्रेणी का प्रारंभक मात्र मनुष्य हि होता है.. और वह मनुष्य आठ वर्ष से अधिक उम्रवाला होता है.. क्षपकश्रेणी का आरंभ करने वाला मनुष्य सर्व प्रथम यथाप्रवृत्तिकरण आदि तीन करण के द्वारा अनंतानुबंधि कषायों की विसंयोजना करता है, उस के बाद तीन करणों के द्वारा हि मिथ्यात्वमोह का क्षय करता है, और अवशिष्ट मिथ्यात्व मोह को मिश्रमोह में प्रक्षेप करता है, इसी प्रकार मिश्रमोह का क्षय करता है, और अवशिष्ट मिश्रमोह का सम्यक्त्व मोह में प्रक्षेप करता है... इसी प्रकार सम्यक्त्व मोह का भी क्षय करता है, और सम्यक्त्व मोह के अंतिमदलिक का क्षय करने के समय वह वेदक-सम्यग्दृष्टि होता है... उस के बाद वह मनुष्य क्षायिक सम्यग्दृष्टि होता है. ___अविरतसम्यग्दृष्टि, देशविरत, प्रमत्तसंयत एवं अप्रमत्तसंयत हि इन अनंतानुबंधि आदि सात कर्म प्रकृतिओं का क्षय करतें हैं... अब जो मनुष्य बद्धायुष्क है, अर्थात् जन्मांतर के आयुष्य का बंध कीया हुआ है, वह मनुष्य श्रेणिक-राजा की तरह यहां हि रूक जाता है... किंतु जिस मनुष्य ने जन्मांतर के आयुष्य का बंध नहि कीया है, वह मनुष्य गुणस्थानक के क्रम में आगे बढता हुआ करणत्रिक के द्वारा अप्रत्याख्यानीय एवं प्रत्याख्यानीय 4 + 4 = 8 आठ कषायों का क्षय करता है... यहां करणत्रिक याने प्रथम यथाप्रवृत्तिकरण अप्रमत्त साधु को होता है, तथा अपूर्वकरण नाम के आठवे गुणस्थानक में वह साधु पूर्ववत् स्थितिघातादि पांच कार्य करता हुआ निद्राद्विक, .

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