Book Title: Acharang Sutram Part 03
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
View full book text
________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 8 - 8 - 15 (254) 197 IIF सूत्रार्थ : उक्त अनशन को स्वीकार करने वाला मुनि शरीर की समाधि के लिए मर्यादित भूमि में अङ्गोपांग का संकुचन-प्रसारण करे। यदि उसके शरीर में शक्ति हो तो वह इंगितमरण अनशन में अचेतन पदार्थ की तरह क्रिया एवं चेष्टा रहित होकर स्थिर रहे। IV टीका-अनुवाद : , इंगितमरण अनशन के आदर करनेवाला मुनि अपने संथार में से उठकर प्रापक आचार्य के पास जावे... तथा गुरुवंदन एवं हितशिक्षा प्राप्त करके वह मुनी पुनः अपने संथारे में आवे... अर्थात् नियत प्रदेश में आवागमन करें... तथा अपने संथारे में बैठा हुआ वह मुनी अपनी भुजा आदि अंगोपांग का संकोच एवं प्रसारण करें... और वे इस प्रकार- काय याने प्रकृति से सुंदर शरीर के संधारण के लिये... क्योंकि- शरीर के संधारण से आयुष्य में उपक्रम का परिहार होता है, अर्थात् अपने आयुष्य पर्यंत अनशन विधि की शुद्ध उपासना करके आयुष्य के क्षय होने पर मरण को प्राप्त करते हैं, यद्यपि वे मुनी महासत्त्वशाली होते हैं, अतः शरीर को पीडा-कष्ट होने पर भी उन महामुनीओं के मन में आर्तध्यान नहि होता.... प्रश्न- शरीर की सभी चेष्टाओं का निरोध करनेवाले एवं शुष्क काष्ठ की तरह अचेतन की भांति रहनेवाले उन महामुनिओंको प्रचुरतर पुन्य की प्राप्ति होती है या नहिं ? . उत्तर- यह कोइ एकान्त नियम नहि है... क्योंकि- संशुद्ध अध्यवसाय के कारण से यथाशक्ति आरोपित भार का निर्वाह करनेवाले मुनी को विधि अनुसार काया के संकोच एवं विस्तार करने पर भी कर्मक्षय हि होता है... यहां वा शब्द से यह ज्ञात होता है किपुण्यानुबंधि पुण्य भी हो सकता है... तथा इंगितमरण अनशन की स्थिति में विधि अनुसार सक्रिय होने पर भी वह महामुनी अचेतनवत् अक्रिय हि है... अथवा तो इंगितभरण अनशन में सामर्थ्य होने पर वह महामुनी अचेतन ऐसे शुष्क-काष्ठ की तरह पादपोपगमन की भांति रहे... सूत्रसार : प्रस्तुत गाथा में भी पूर्व गाथा में उल्लिखित बात को हि पुष्ट किया गया है। इप्समें बताया गया है कि- यदि शरीर में ग्लानि का अनुभव होता हो तो वह मर्यादित भूमि में घूमफिर सकता है। यदि उसे ग्लानि की अनुभूति न होती हो तो स्थिर होकर शान्तभाव से आत्म चिन्तन में संलग्न रहना चाहिए। जहां तक हो सके हलन-चलन कम करते हुए या निश्चेष्ट रहते हुए साधना में संलग्न रहना चाहिए एवं उत्पन्न होने वाले सभी परीषहों को समभाव पूर्वक सहन करना चाहिए /