Book Title: Acharang Sutram Part 03
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 8 - 8 - 24 (263) 209 करे.कि- मैं आगामी भव में राजा-महाराजा जैसे भोग साधनों से संपन्न बनूं। इन सभी सावध आकांक्षाओं से रहित होकर वह अपने आत्म-चिन्तन में संलग्न रहे। वह किसी भी तरह के वैषयिक भोगोपभोग के चिन्तन की ओर ध्यान न दे। भोगों की इच्छा भी नहीं करनी चाहिए; इस बात का उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... I सूत्र // 24 // // 263 // 1-8-8-24 सासएहिं निमन्तिज्जा, दिव्वमायं न सद्दहे। तं परिबुज्झ माहणो, सव्वं नूमं विहूणिया // 263 // II संस्कृत-छाया : शाश्वतैः निमंत्रयेत् दिव्यमायां न श्रद्दधीत। तां प्रतिबुध्यस्व माहनः, सर्वं नूमं (कर्म मायां वा) विधूय // 263 // III सूत्रार्थ : यदि कोई व्यक्ति आयु पर्यन्त रहने वाले अथवा प्रतिदिन दान करने से क्षय न होने वाले वैभव का भी निमंत्रण करे तब वह साधु उसे ग्रहण करने की इच्छा न करे। इसी तरह देव सम्बन्धी माया की समृद्धि एवं भोग की इच्छा नहीं करनी चाहिए। अतः हे शिष्य ! तू संसार की माया के स्वरूप को समझ और इन्हें सर्व प्रकार से कर्मबन्ध का कारण जान कर इस देवमाया से भी दूर रह अर्थात् इसमें रागभाव मत रख। IV. . टीका-अनुवाद : पादपोपगमन अनशन स्वीकारे हुए साधु को कोइक राजादि लोक विपुल धन-धान्य समृद्धि के द्वारा निमंत्रण करे कि- मैं आप को जीवन पर्यंत दानादि धर्म एवं सुखभोग के लिये अनर्गल संपत्ति देता हुं... इत्यादि... यह बात सुनकर साधु उन्हें कहे कि- हे भाग्यशाली ! शरीर सुख के लिये धन-समृद्धि चाहिए, किंतु यह शरीर हि अशाश्वत है, विनश्वर है, अतः आपका यह निमंत्रण निष्फल है... तथा यह साधु दिव्य मायाजाल में भी श्रद्धा न करे... अभिलाषा न करे... वह इस प्रकार- कोइक देव साधु के मनोभाव की परीक्षा के लिये, अथवा द्वेषभाव से, अथवा भक्तिसेवाभाव से अथवा कौतुक-कुतूहलबुद्धि से विविध ऋद्धि-समृद्धि के द्वारा निमंत्रण करे, तब वह साधुः परिज्ञा के द्वारा हेयोपादेय का विवेक भाव सुरक्षित रखकर उस दिव्य मायाजाल