Book Title: Acharang Sutram Part 03
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 8 - 8 - 17 (256) 199 बैठ जाए। कहने का तात्पर्य इतना ही है कि- जिस तरह से उसे समाधि रहती हो उस तरह उठने-बैठने की व्यवस्था कर सकता है। परन्तु; वह अपनी मर्यादा का उल्लंघन न करे। अर्थात् मर्यादित भूमि में वह खडा रहे या बैठा रहे या पर्यंक आसन करे या सीधा लेट जाए या एक ओर से लेट जाए। जिस किसी आसन से उसे समाधि रहती हो, आत्म-चिन्तन में मन लगता हो; उसी आसन को स्वीकार करके आत्म साधना में संलग्न रहे। इस विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... सूत्र // 17 // // 256 // 1-8-8-17 आसीणोऽणेलिसं मरणं, इन्दियाणि समीरए। कोलावासं समासज्ज वितहं पाउरेसए // 256 // II संस्कृत-छाया : आसीन: अनीदृशं मरणं, इन्द्रियाणि समीरयेत् / कोलावासं समासाद्य, वितथं प्रादुरेषयेत् // 256 // III सूत्रार्थ : - सामान्य साधक के लिए जिसका आचरण करना कठिन है ऐसे इंगित मरण में अवस्थित मुनि इन्द्रियों को विषय विकारों से हटाने का प्रयत्न करे। यदि उसे सहारा लेने के लिए लकडी-डंड की आवश्यकता का अनुभव हो तो वह जीव जन्तु से युक्त डंड के मिलने पर उसे ग्रहण न करे, किंतु जीवादि से रहित डंड-लकडी की गवेषणा करे। IV. टीका-अनुवाद : अन्य सामान्य साधु इंगितमरण के लिये असमर्थ होते हैं... ऐसा यह अतुल मरण काल जब समीप में आता है तब इंगितमरण में प्रयत्नशील साधुजन अपनी इंद्रियों को अपने अपने इष्ट या अनिष्ट विषयो में होनेवाले रागभाव या द्वेषभाव का त्याग करता है, अर्थात् पुद्गल पदार्थों में राग एवं द्वेष नहि करता... तथा चलने के लिये लकडी-डंडा की जरुरत हो, तब बिना छिद्रवाली लकडी-डंडा का टेका-आलंबन लेकर धीरे धीरे आवागमन करते हैं... सूत्रसार : प्रस्तुत गाथा में बताया गया है कि- इंगितमरण अनशन व्रत को स्वीकार किए हुए मुनि को राग-द्वेष एवं विकारों से सर्वथा निवृत्त रहना चाहिए। यदि कभी कषायों के उत्पन्न होने तथा मनोविकारों के जागृत होने की सामग्री उपस्थित हो तो मुनि अपने मन एवं इन्द्रियों