________________ 202 // 1-8-8-19 (258) // श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन I सूत्र // 19 // // 258 // 1-8-8-19 अयं चाययतरे सिया, जो एवमणुपालए। सव्वगाय निराहेवि, ठाणाओ न विउन्भमे // 258 // II संस्कृत-छाया : अयं चायततरः स्यात्, यः एवमनुपालयेत् / सर्वगात्र निरोधेऽपि, स्थानाद् न व्यु झमेत् // 258 // III सूत्रार्थ : यह पादोपगमन अनशन भक्तपरिज्ञा और इंगितमरण से विशिष्टतर है अर्थात विशेष यतना वाला है। अतः साधु उक्त विधि से पादपोपगमन अनशन का पालन करे। अर्थात् समस्त शरीर का निरोध होने पर उपस्थित परीषहों की परिस्थिति में कभी भी प्राप्त संयमस्थान को चूके नहि, किंतु उत्तरोत्तर संयम स्थान में आगे हि आगे बढता रहे इत्यादि.. IV टीका-अनुवाद : ___ इंगितमरण का अधिकार समाप्त हुआ... अब पादपोपगमन के विषय में कहते हैं किअब जो हम प्रस्तुत मरणविधि कहेंगे वह पादपोपगमन मरण विधि शास्त्रो में बहोत हि विस्तार से कही जाएगी... अर्थात् भक्तपरिज्ञा एवं इंगितमरण की विधि विस्तृत है हि, किंतु यह पादपोपगमन की विधि तो उनसे भी विस्तृततर है अथवा तो यह पादपोपगमन की विधि भक्त परिज्ञा एवं इंगितमरण से भी अधिक प्रयत्न साध्य है... . यद्यपि यहां इंगित मरण की विधि में प्रव्रज्या तथा संलेखना आदि जो कुछ कहा है, वह सभी बातें यहां पादपोपगमन में भी जानीयेगा.. यह पादपोपगमन मरण आयततर है, क्योंकि- जो साधु पादपोपगमन मरण की विधि का स्वीकार करता है, वह साधु सर्वगात्र क निरोध करता है, अर्थात्- संपूर्ण शरीर अति उष्ण धूप (ताप) में तप रहा हो, मूर्छा आती हो अथवा मरण समुद्घात हो रहा हो तथा शियाल, गीध, चींटीयां आदि जंतु उस साधु के शरीर में से लोही, मांस खा रहे हों, तो भी महासत्त्वशाली वह साधु एक मात्र मोक्षपद की कामना से समाधि में हि रहता है... अर्थात् उस स्थान से चलित नहि होता... द्रव्य से उस स्थान (क्षेत्र) का त्याग न करे, तथा भाव से शुभ अध्यवसाय का त्याग न करें...