Book Title: Acharang Sutram Part 03
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ 200 // 1-8-8-18 (257) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन को उस ओर से हटाकर आत्म-चिन्तन में लगा दे। मुनि को उस समय अपने योगों पर इतना संयम होना चाहिए कि- आत्म-चिन्तन के अतिरिक्त अन्यत्र योगों की प्रवृत्ति ही न हो। इस तरह इंगितमरण अनशन की साधना में स्थित साधक योगों का निरोध करने का प्रयत्न करे। यदि उसके उपयोग में आने वाले तख्त आदि में घुन आदि जीव-जन्तु हो तब यह साधु उस तख्त को काम में न लें, क्योकि- इससे जीवों की हिंसा होती है। अहिंसा के प्रतिपालक मुनि जीवों से संयुक्त तख्त ग्रहण न करे, किंतु जीवों से रहित अन्य तख्त-पाट की गवेषणा करे... इस तरह समस्त जीवों का रक्षण करते हुए साधक को अपने योगों को राग-द्वेष आदि मनोविकारों से रोकते हुए आत्म-चिन्तन में संलग्न रहना चाहिए। ____ अनशन करने वाले मुनि की वृत्ति कैसी रहनी चाहिए, इसका उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं.... I सूत्र // 18 // // 257 // 1-8-8-18 जओ वज्जं समुप्पज्जे, न तत्थ अवलम्बए। तउ उक्कसे अप्पाणं, फासे तत्थऽहियासए // 257 // संस्कृत-छाया : यतः वज्रं (अवयं) समुत्पद्येत, न तत्र अवलंबेत / ततः उत्कर्षेद् आत्मानं, स्पर्शान् तत्र अध्यासयेत् // 257 // III सूत्रार्थ : जिससे वज्रवत् भारी कर्म बंध हो, ऐसे घुणादि से युक्त काष्ठ फलक का अवलम्बन न करे। वह साधु अपनी आत्मा को दुष्टध्यान और दुष्टयोग से दूर रखे... तथा उपस्थित हुए दुःख रूप कठोर स्पर्शों को समभावपूर्वक सहन करे। IV टीका-अनुवाद : इंगितमरण की विधि कहने के बाद अब सूत्रकार महर्षि कहते हैं, कि- जिस अनुष्ठान से या आलंबन से वज्र जैसा कठोर कर्मबंध हो, ऐसा अनुष्ठान या लकडी आदि डंडा का आलंबन न लें... तथा वह साधु उस लकडी-डंडा तख्त-पाट आदि को काययोग से उंचा नीचा न करे या फेंके भी नहि, तथा वचनयोग से कठोर-कुटु सावध वचन न बोले एवं मनोयोग से आर्तध्यानादि न करें... अर्थात् अपनी आत्मा को पापकर्मो से दूर रखें... . इंगितमरण प्राप्त वह साधु, धृति एवं संघयण बलवाला होता है, शरीर की सेवा शुश्रुषां