Book Title: Acharang Sutram Part 03
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ 204 // 1-8-8-21 (२६०)卐 श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन IV टीका-अनुवाद : यह आप के सामने प्रत्यक्ष में कहा जा रहा पादपोपगमन मरण विधि उत्तम याने श्रेष्ठ मरण विधि है, सभी मरण विधिओं में विशेष हैं, क्योंकि- पूर्वोक्त भक्तपरिज्ञा एवं इंगितमरण से भी यहां विशेष विधि है, अत: मूल सूत्र में प्रग्रह शब्द का प्रयोग कीया गया है..... जैसे कि- इंगितमरण में शरीर के स्पंदन याने संभवित हलन-चलन की संमति है, जब कि- पादपोपगमन में शरीर के स्पंदन का निषेध है, छिन्नमूल वाले वृक्ष की तरह निश्चेष्ट, निष्क्रिय रहना है, तथा अग्नि से कोइ जलावे, शस्त्र से कोइ छेदे या गड्डे आदि विषम स्थान में फेंके तो भी तथैव काष्ठवत् रहना है, चिलातीपुत्र मुनि, खंधक मुनि, मेतारज मुनि, अवंतिसुकुमाल, गजसुकुमाल इत्यादि महामुनीवरों की तरह शरीर का संचार नहि करतें... जैसे कि- पादपोपगमन-अनशन स्वीकार ने वाला साधु प्रथम अचिरकालंकृत निर्जीव स्थंडिल भूमि का निरीक्षण (पडिलेहण) कर के वहां वह साधु पादपोपगमन की विधि की आचरणा करें... अर्थात संपूर्ण शरीर के अंगोपांगों का निरोध (संवर) करें. उस स्थान से अन्य स्थान में गमन न करें... वह साधु बैठे हो या खडे हो, किंतु शरीर के कोइ भी अंगोपांग का संचार या संभाल न करें, अर्थात् अचेतन (मृत) की तरह उदीसीनभाव में रहे... पादपोपगमन अनशन को स्वीकार करने के समय शरीर को जैसा स्थापित किया था वैसा हि रहने दे... साधु स्वयं शरीर का संचालन न करें... V सूत्रसार : पादोपगमन अनशन की विशेषता उसकी कठोर साधना के कारण है। उस अनशन में साधक वृक्ष से टूटकर जमीन पर पडी हुई शाखा की तरह निश्चेष्ट होकर आत्म चिन्तन में संलग्न रहता है। उक्त साधक की मनो वृत्ति का उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... I सूत्र // 21 // // 260 // 1-8-8-21 अचित्तं तु समासज्ज, ठावए तत्थ अप्पगं / वोसिरे सव्वसो कायं, न मे देहे परीसहा // 260 // II संस्कृत-छाया : अचित्तं तु समासाद्य, स्थापयेत् तत्रात्मानम् / व्युत्सृजेत् सर्वशः कायं, न मे