________________ 198 // 1-8 - 8 - 16 (255) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन यदि आत्मबल अधिक न हो तो इंगितमरण स्वीकार करने वाले गीतार्थ मुनि को क्या करना चाहिए, इसका उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... I सूत्र // 16 // // 255 // 1-8-8-16 परिक्कमे परिकिलन्ते, अदुवा चिट्टे अहायए। ठाणेण परिकिलन्ते, निसीइज्जा य अंतसो // 255 // II संस्कृत-छाया : परिक्रामेत् परिक्लान्तः, अथवा तिष्ठेत् यथायतः। स्थानेन परिक्लान्तो निषीदेत् च अन्तशः // 255 // III सूत्रार्थ : यदि अनशन स्वीकार करने वाले मुनि के शरीर को कष्ट होता हो तो वह नियत भूमि पर घूमे। यदि उसे घूमने से थकावट होती हो तो बैठ जाये और बैठने से भी कष्ट होता हो / तो लेट जाए। इसी प्रकार पर्यंकासन, अर्ध पर्यंकासन बैठना चलना शयन करना इत्यादि... जिस तरह से उसे समाधि रहे वैसा करे। IV टीका-अनुवाद : इंगितमरण की विधि वाला वह साधु जब भी बैठे हो या खडे हो, तब उस स्थिति में यदि देह में पीडा होती हो तब वह साधु नियमित प्रदेश में सरल गति से आवागमन करे... और जब आवागमन करने पर थक जाए तब देह में समाधि रहे उस प्रकार बैठे या खडा रहे... तथा जब बैठने की स्थिति में भी थकान लगे तब वह साधु पर्यंकासन से बैठे या अर्ध पर्यंकासन से बैठे या उत्कटुकासन से बैठे... और जब बैठने का न बने तब साधु संथारे में शयन करे... और वह शयन भी या तो सीधा उत्तानक प्रकार से या बाये पडखे शयन करे या डंड की तरह लंबा होकर शयन करे या लंगडे की भांति पैर को मोडकर शयन करे, अर्थात् जिस प्रकार देह में समाधि रहे उस प्रकार बैठने में, खडे रहने में, शयन करने में यथाविधि बदलाव करता रहे... V सूत्रसार : प्रस्तुत गाथा में बताया गया है कि- यदि इंगितमरण अनशन को स्वीकार किए हुए साधक को थकावट प्रतीत होती हो, तो वह मर्यादित भूमि में घूम-कर फिर सकता है। यदि घूमने से उसे थकावट मालूम हो, तो वह पर्यंक आसन या अर्ध पर्यंक आसन कर ले या