Book Title: Acharang Sutram Part 03
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 8 - 8 - 10 (249) 191 III सूत्रार्थ : * हिंसक प्राणियों द्वारा शरीर का विनाश होने की परिस्थिति में भी मुनि उनके भय से उठकर अन्य स्थान पर न जाए। आस्रवों से रहित होने के कारण जो मुनि शुभ अध्यवसाय वाला है, वह उस हिंसा जन्य वेदना को अमृत के समान समझकर सहन करे। IV टीका-अनुवाद : साधु सोचे कि- यह सिंह, वाघ, मच्छर आदि प्राणी-जंतु मात्र मेरे देह (शरीर) का विनाश हि करतें हैं, किंतु मैं (आत्मा) तो ज्ञान, दर्शन, चारित्र स्वरूप हुं अत: मेरा तो कुछ भी नुकशान नहि होता है... इत्यादि सोचकर साधु उन सिंह आदि प्राणीओंका निवारण न करे, परंतु देह की ममता त्याग कर आत्म-भाव में हि रहे, उस स्थान से भाग-दौड भी न करे परंतु वहां हि आत्म-भाव में लीन होकर स्थिर खडा रहे... तथा वह साधु प्राणातिपातादि, एवं विषय-कषायादि आश्रवों का सर्वथा त्याग करके शुभ अध्यवसाय में रहकर आत्मगुण स्वरूप अमृत से तृप्त होता हुआ, उन सिंह आदि प्राणीओं को उपकारक मानता हुआ, हो रही वेदना-पीडाको सहन करे... v सूत्रसार : पूर्व की गाथा में हिंसक जन्तुओं द्वारा दिए गए परीषहों को सहन करने का उपदेश दिया गया है। इस गाथा में बताया गया हे कि- किसी भी हिंसक जन्तु को सामने आते देखकर अनशन व्रत की साधना में संलग्न मुनि उस स्थान से उठकर अन्यत्र न जाए। किंतु उनके द्वारा उत्पन्न होने वाली वेदना को अमृत के समान समझे। इससे यह स्पष्ट किया गया है कि• 'अनशन व्रत को स्वीकार करने वाला साधक आत्म चिन्तन में इतना संलग्न हो जाए कि उसे अपने शरीर का ध्यान भी न रहे। शरीर पर होने वाले प्रहारों की वेदना मनुष्य को तब तक परेशान करती है जब तक साधक का मन शरीर पर स्थित है। जब साधक आत्म चिन्तन में गहरी डुबकी लगा लेता है, तब उसे शारीरिक पीडाओं की कोई अनुभूति नहीं होती और वह साधु हि समभाव पूर्वक उस वेदना को सह लेता है। वह उसे कटु नहीं, अपितु अमृत तुल्य मानता है। जैसे अमृत जीवन में अभिवृद्धि करता है, उसी तरह वेदना को समभाव पूर्वक सहन करने से आत्मा के ऊपर से कर्म मल दूर होने से आत्म ज्योति का विकास होता है, आत्मा के गुणों में अभिवृद्धि होती है और आत्मा समस्त कर्म बन्धनों से मुक्त होकर सदा के लिए अजर-अमर हो जाती है। अत: साधक को पूर्णतः निर्भीक बन कर आत्मसाधना में संलग्न रहना चाहिए। इस बात को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं...