________________ 1901 - 8 - 8 - 10 (249) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन कोई भी चींटी मच्छर आदि जन्तु, या गृध आदि पक्षी एवं सिंह आदि हिंसक पशु खाए या पीए तो भी मुनि न तो उन्हें हाथ से मारे और न रजोहरण से दूर करे। IV टीका-अनुवाद : संसरणशील याने कीडी, मंकोडे आदि तथा सिंह, वाघ शियाल आदि प्राणी... आकाश में उड़नेवाले गीध, पोपट आदि पक्षी... भूमी में बील निवासी सर्प आदि प्राणी... उनमें से सिंह-वाघ आदि मांस का भक्षण करते है, तथा मच्छर आदि जंतु लोही (शोणित) पीते है.... एसे प्राणी जब साधु के पास आकर उपद्रव करे तब चिलातीपुत्र, अवंतिसुकुमाल एवं सुकोशल आदि मुनीओं की तरह साधु उन प्राणीओं को मारे नहिं तथा जब वे जीव-जंतु लोही या मांस खाने लगे तब साधु रजोहरण आदि से शरीर का प्रमार्जन भी न करें... v सूत्रसार : यह हम देख चुके हैं कि- समभाव पूर्वक परीषहों को सहन करने वाला मुनि ही कर्मों से मुक्त हो सकता है। प्रस्तुत सूत्र में भी यही बताया गया हे कि- अनशन व्रत को स्वीकार करने वाले मुनि को उत्पन्न होने वाले सभी परीषहों को समभाव पूर्वक सहन करना चाहिए। यदि कोई चींटी, मच्छर आदि जन्तु, सर्प-नेवला आदि हिंसक. प्राणी, गृध आदि पक्षी और सिंह, शृंगाल आदि हिंसक पशु अनशन व्रत को स्वीकार किए हुए मुनि के शरीर पर डंक मारते हैं या उसके शरीर में स्थित मांस एवं खून को खाते पीते हैं, तब उस समय मुनि उस वेदना को समभाव पूर्वक सहन करे। किन्तु, अपने हाथ से न किसी को मारे, न परिताप दे और न किसी जंतु को रजोहरण से हटाए। इस सूत्र में साधक की साधना की पराकाष्ठा बताई गई हैं। साधक साधना करते हुए ऐसी स्थिति में पहुंच जाता है कि- उसका अपने शरीर पर कोई ममत्व नहीं होता है। ऐसी उत्कट साधना को साधकर ही साधक कर्म बन्धन से मुक्त होता है। अतः उसे सदा परीषहों को सहने का प्रयत्न करना चाहिए। इस विषय में कुछ और बातें बताते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... I सूत्र // 10 // // 249 // 1-8-8-10 - पाणा देहं विहिंसन्ति ठाणाओ न विउब्भमे / आसवेहिं विवित्तेहिं तिप्पमाणोऽहिसासए // 249 // // संस्कृत-छाया : प्राणिनः देहं विहिंसन्ति स्थानात् न उद्ध्मेत् / आश्रवै: विविक्तैः तृप्यमानः अध्यासयेत् // 249 //