Book Title: Acharang Sutram Part 03
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 8 - 8 - 9 (248) 189 चोवीहार अनशन का पच्चक्खाण करके पांच महाव्रतों क पुन: उच्चारण करे तथा सभी जीवों से क्षमापना करे, एवं सुख तथा दुःख में समभाव रखे, और पूर्वोपार्जित पुन्यानुबंधि पुन्य के उदय में समाधि को पाकर संथारे में शयन करे... संथारे में शयन करने के बाद जो भी परीषह या उपसर्ग प्राप्त हो, तब देह के प्रति निर्मम ऐसा वह साधु उन परीषहादि के कष्टों को समभाव से सहन करे... वहां मनुष्यों के द्वारा अनुकूल या प्रतिकुल उपसर्ग होवे तब व्याकुल न होवे किंतु साधु जीवन की मर्यादा में हि रहे... संयम मर्यादा का उल्लंघन न करे... तथा पुत्रपत्नी आदि परिवार के लोगों को याद करके आर्तध्यान भी न करे.. तथा प्रतिकूल परीषह की परिस्थिति में भी वह साधु क्रोधान्ध न होवे इत्यादि... v सूत्रसार : संस्तारंक-तृण शय्या बिछाकर मुनि उस पर बेठकर तिविहार याने तीनों आहार-पानी को छोडकर शेष सबं खाद्य पदार्थों का अथवा चोविहार याने चारों आहार-पानी सहित सभी खाद्य पदार्थों का त्याग करे। यदि उसे तृण आदि के स्पर्श से कष्ट होता हो या कोई देव, मनुष्य एवं पशु-पक्षी कष्ट दे तब वह साधु उसे समभाव पूर्वक सहन करे। परन्तु, उस परिषह से घबराकर अपने व्रत का भंग न करे एवं अपने साधना मार्ग का त्याग न करे किंतु अनुकूल एवं प्रतिकूल सभी परीषहों को समभाव पूर्वक सहन करे। कठिनता के समय पर भी अपने मार्ग पर स्थिर रहने में ही साधना की सफलता है। इसलिए साधक को पुत्र, माता आदि परिजनों की ओर से ध्यान हटाकर समभाव पूर्वक अपनी साधना में ही संलग्न रहना चाहिए . अनशन को स्वीकार करने वाला साधक परीषहों के उत्पन्न होने पर भी क्रोध न करे किंतु समभाव पूर्वक उन्हें सहन करे, इसका उपदेश देते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... I सूत्र // 9 // // 248 // 1-8-8-9 संसप्पगा य जे पाणा जे य उड्ढमहाचरा / भुंजंति मंससोणियं न छणे न पमज्जए // 248 // II संस्कृत-छाया : संसर्पका: च ये प्राणिनः, ये च ऊर्ध्वं अधश्चराः / भुञ्जन्ते मांस-शोणितं न हन्यात् न प्रमार्जयेत् // 248 // . III सूत्रार्थ : अनशन व्रत को स्वीकार करने वाले मुनि के शरीर में स्थित मांस एवं रक्त को यदि