Book Title: Acharang Sutram Part 03
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका // 1-8-8-5 (244) // 185 V - सूत्रसार : यह हम देख चुके हैं कि- आसक्ति हि कर्म के बन्ध का कारण है। अत: संलेखना एवं संथारे में स्थित साधु श्रद्धालुओं के द्वारा अपनी प्रसंशा होती हुई देखकर यह अभिलाषा न करे कि- मैं अधिक दिन तक जीवित रहूं, जिससे कि- मेरी प्रसंशा अधिक हो। तथा कष्टों से घबरा कर मरने की भी अभिलाषा न करे। वह साधु जन्म-मरण की अभिलाषा से ऊपर उठकर समभाव पूर्वक संलेखना एवं अनशन की साधना में संलग्न रहे। ऐसे साधक को संलेखना-काल में क्या करना चाहिए ? इसका उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... सूत्र. // 5 // // 244 // 1-8-8-5 मज्झत्थो निज्जरापेही समाहिमणुपालए / अंतो बहिं विउस्सिज्ज अज्झत्थं सुद्धमेसए // 244 // // संस्कृत-छाया : मध्यस्थ: निर्जरापेक्षी समाधि अनुपालयेत् / अन्त: बहिः व्युत्सृज्य अध्यात्म शुद्धं अन्वेषयत् // 244 // III सूत्रार्थ : मध्यस्थ भाव में स्थित एवं निर्जरा का इच्छुक मुनि सदा समाधि का परिपालन करे और अन्तरंग कषायों एवं बाह्य शरीरादि उपकरणों को त्याग कर मन की शुद्धि करे। IV टीका-अनुवाद : राग एवं द्वेष न करे वह मध्यस्थ, अथवा जीवन एवं मरण की इच्छा न करे वह मध्यस्थ.. ऐसा मध्यस्थ मुनी कर्मो की निर्जर हि चाहता है... और जीवन तथा मरण की अभिलाषा नहि रखता, किंतु काल-पर्याय से प्राप्त मरण-काल में समाधि रखता है.. तथा अंदर से कषायों का एवं बाहार से शरीर एवं वस्त्रादि उपकरणों का त्याग करके मात्र आत्मभाव में रहा हुआ वह मुनी सभी राग-द्वेषादि द्वंद्वों का त्याग करके तथा विस्रोतसिका याने विकारभावों का भी त्याग करके अध्यात्म याने शुद्ध अंत:करण की हि अभिलाषा रखे... सूत्रसार : साधना के पथ पर गतिशील आत्मा जीवन-मरण की आकांक्षा का त्याग करके