________________ 184 // 1-8-8-4 (243) // श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन है और कषाय से सूक्ष्म कार्मण शरीर परिपुष्ट होता है। और साधना का उद्देश्य है शरीर रहित होना। अतः उसके लिए स्थूल एवं सूक्ष्म शरीर को परिपुष्ट करने वाले आहार एवं कषाय को कम करना जरूरी है, क्योंकि- इनका अभी संपूर्णतः त्याग कर सकना कठिन है। अत: संलेखना काल में कषायों एवं आहार को कम करते-करते एक दिन कषायों से सर्वथा निवृत्त हो जाना यही साधना की सफलता है। कषायों पर विजय पाने के लिए सहिष्णुता का होना आवश्यक है। परीषहों के समय विचलित नहीं होने वाला साधक ही कषायों से निवृत्त हो सकता है। इस तरह कषाय एवं आहार को घटाते हुए साधक अपनी साधना में संलग्न रहे। यदि आहार की कमी से मूर्छा आदि आने लगे और स्वाध्याय आदि की साधना भली-भांति नही हो सकती हो तो साधक आहार करले और यदि आहार करने से समाधि भंग होती हो तो वह आहार का सर्वथा त्याग . करके अनशन व्रत (संथारे) को स्वीकार करले। परन्तु ऐसा चिन्तन न करे कि- मैं अभी संलेखना के तप को तोडकर आहार कर लूं और फिर बाद में तप करुंगा, इत्यादि... इसी विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... सूत्र // 4 // // 243 // 1-8-8-4 जीवियं नाभिकंखिज्जा मरणं नो वि पत्थए / दुहओवि न सज्जिज्जा जीविए मरणे तहा // 243 // // संस्कृत-छाया : जीवितं न अभिकाङ्क्षत, मरणं अपि न प्रार्थयेत् / उभयतोऽपि न सङ्गं विदध्यात् जीविते मरणे तथा // 243 // III सूत्रार्थ : संलेखना एवं अनशन में स्थित साधु न जीने की अभिलाषा रखे और न मरने की प्रार्थना करे। वह जीवन तथा मरण दोनों में अनासक्त रहे। IV टीका-अनुवाद : संलेखना की विधि-मर्यादा में रहा हुआ साधु सभी प्रकार से असंयमवाले जीवन की। इच्छा न करे... तथा क्षुधा (भुख) की पीडा सहन न होने पर मरण की इच्छा भी न करे... अर्थात् जीवन या मरण की इच्छा न करे किंतु समता से संलेखना काल व्यतीत करे...