________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका // 1-8-7-3 (238) // 173 करे... किंतु यदि लज्जा न हो तब अवस्त्र (वस्त्र रहित) हि संयमानुष्ठान में पुरुषार्थ करे... अब वस्त्र रहित होकर साधु जब संयमानुष्ठान में उद्यम करता है, तब बार बार उन्हें तृणों का कटु स्पर्श परिताप दे, इसी प्रकार शीतस्पर्श, उष्णस्पर्श, दंशमशक आदि के स्पर्श-डंख से पीडा-कष्ट हो... तथा एक प्रकार के या अन्य कोइ भी प्रकार के विरूप स्वरूपवाले जो भी तणादि स्पर्शों का कष्ट हो तब उनको समभाव से सहन करे... और अचेल याने वस्त्ररहित अवस्था में हि वह साधु सम्यक्त्वादि रत्नत्रयी को अच्छी तरह से जानकर कष्टों को समभाव से सहन करके आत्मा को कर्मो के भार से लघु याने हलवा बनाता है अर्थात् बहोत सारे कर्मो की निर्जरा करता है... . तथा प्रतिमा स्वीकारनेवाला साधु हि विशेष अभिग्रह ग्रहण करता है, जैसे कि- मैं प्रतिमावाले हि अन्य साधुओं को आहारादि दूंगा... अथवा तो उनसे हि आहारादि ग्रहण करुंगा... इत्यादि चतुर्भगी अभिग्रहों की होती है... V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में इस बात को और स्पष्ट कर दिया गया है कि- जो मुनि लज्जा एवं परिषहों को जीतने में समर्थ है वह वस्त्र का उपयोग न करे। इससे स्पष्ट हो गया कि- वस्त्र केवल संयम सुरक्षा के लिए है, न कि- शरीर की शोभा एवं शृंगार के लिए, अतः साधु को सदा समभाव पूर्वक परीषहों को सहते हुए संयम में संलग्न रहना चाहिए। जो मुनि साधना के स्वरूप एवं समभाव को सम्यक्तया जानता है, वह परीषहों की उपस्थिति होने पर अपने संयम पथ से विचलित नहीं होता है। अतः साधक को सदा समभाव की साधना में संलग्न रहना चाहिए। और यदि उसमें शीत आदि के परीषहों को एवं लज्जा को जीतने की क्षमता है तो उसे वस्त्र का त्याग कर देना चाहिए और यदि इतनी क्षमता नहीं है तो वह कम से कम कटिबन्ध (चोल पट्टक) या मर्यादित वस्त्र रख सकता है। इसके बाद प्रतिभासम्पन्न मुनि के अभिग्रहों का उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... I सूत्र // 3 // // 238 // 1-8-7-3 जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवइ-अहं च खलु अण्णेसिं भिक्खूणं असणं वा 4 आहटु दलइस्सामि, आहडं च साइज्जिस्सामि 1. जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवइ-अहं च खलु अण्णेसिं भिक्खूणं असणं वा 4 आह? दलइस्सामि, आहडं च नो साइजिस्सामि 2. जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवइ-अहं च खलु असणं वा 4 आहटु नो दलइस्सामि आहडं च साइज्जिस्सामि 3. जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवइ-अहं च